नया क्या?

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

प्यार में फर्क

दिवाली का दिन था और विशेष अपने कॉलेज से घर छुट्टी पर आया हुआ था..
ठण्ड भी बढ़ रही थी और इसलिए विशेष के पिताजी अपने लिए एक जैकेट ले कर आये थे...
विशेष ने जैकेट देखा तो उसे खूब पसंद आया और वह बोल उठा - "वाह पापा! यह तो बहुत ही अच्छा जैकेट है |"
इतना बोलना था कि पिताजी तुरंत बोले - "अगर तुम्हें पसंद हो तो तुम रख लो, मैं अपने लिए और ले आऊंगा |"

यह किस्सा यहीं समाप्त हो गया और कई साल बीत गए...

विशेष अब नौकरीपेशा और शादीशुदा आदमी हो चुका था.. माता-पिता साथ ही में रहते थे..

एक दिन वह अपने लिए कुछ शर्ट्स ले कर आया और उन्हें सबको दिखा रहा था कि एक शर्ट को देख कर पिताजी बोल उठे - "वाह! यह शर्ट तो बेहद स्मार्ट लग रहा है |"
और विशेष तुरंत बोल उठा - "पापा, अगर आपको यह पसंद है तो मैं आपके लिए ऐसा ही एक और शर्ट ले आऊंगा जल्द |"

रात को अपने आराम-कुर्सी पर बैठे पिताजी को वो दिवाली वाली बात याद आ गयी और उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि जो प्यार माँ-बाप अपने बच्चों को देते हैं, वैसा ही प्यार बहुत ही कम बच्चे अपने माँ-बाप को लौटा पाते हैं.. प्यार में फर्क हो ही जाता है...

पर वह खुश थे कि इस ज़माने में भी उनका बेटा उन्हें कम से कम मना तो नहीं कर रहा है और इसी खुशी में वो नींद की आगोश में खो गए...

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

बक-बक

फिर से आ टपका हूँ मैं ब्लॉग-जहां में.. किसलिए?
अरे बस ये मत पूछिए.. बस यूँ समझिये की इधर से गुज़र रहा था तो सोचा की आप सबको साष्टांग प्रणाम करता चलूँ.. आशीर्वाद दिए बगैर भागिएगा मत यहाँ से..

बहुत दिनों से सोच रहा था कि क्या लिखूं? क्या लिखूं? कुछ पल्ले नहीं पढ़ रहा है.. तो ऐंवे ही चला आया खाली हाथ.. आम आदमी की तरह हूँ.. खूब सोचता हूँ, बकता हूँ और फिर खाली थैला ले कर घर आ जाता हूँ.. कभी कभी लगता है नौकरी ने दिमाग में जंग लगा दी है.. कुछ सूझता ही नहीं है.. सृजनात्मकता की तो भैया वाट लग गयी है.. बड़ा भारी रोना है.. ऑफिस में ऑफिस राजनीति में लिप्त रहते हैं, बाहर जाते हैं तो भारतीय राजनीति की नेतागिरी करते हैं और घर जाते हैं तो रिश्तेदारों के साथ नेतागिरी.. यानी सृजनात्मकता की जगह नेतागिरी ने ले ली है.. विडम्बना!

खैर एक-दो बातें ही बताऊंगा आज..
सप्ताहांत में कलाकारी में समय दे रहे हैं.. दिल्ली में काफी बेहतरीन कार्यक्रम हो रहे हैं संगीत और कला सम्बन्धी.. यह देख कर अच्छा लगता है कि युवा जनता भी काफी तादाद में शास्त्रीय संगीत सुनने आ रही है और इसमें दिलचस्पी फिर से बढ़ रही है पर जब बात आती है सीखने की, तो अच्छे गुरुजनों का मिलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता जा रहा है डॉन की तरह.. जब तक कला सीखाई नहीं जाएगी तो वो आगे कैसे बढ़ेगी? केवल युवा वर्ग को कोसने से तो काम नहीं चलेगा.. कला को जीवित रखेने के लिए उनसे बात करनी पड़ेगी और उन्हें सही मार्गदर्शन देते हुए ही मंजिल पायी जा सकती है.. ज्ञान बांटने से बढ़ता है चाहे फिर वो पढाई-सम्बन्धी हो या फिर कला-सम्बन्धी.. इस बात की बहुत कमी जान पड़ती है.. कुछ करना होगा.. हमारी कोशिश जारी है और अगर आप भी अपने सुझाव से इसमें हम युवाओं की मदद करें तो इससे बेहतर और बात कुछ नहीं होगी..

और फिर ये:
अभी एक दोस्त से मिला कुछ दिनों पहले.. सिंगल एंड मिन्गल वाले वर्ग का.. फिल्मों ने उसे इतना बेवक़ूफ़ बनाया है कि सही ज़िन्दगी में भी उन हरकतों को कॉपी करने की कोशिश करता है.. कहता है कि किसी पिक्चर में देखा था कि हीरो जानबूझकर अपने गालों पर या नाक पर क्रीम या सॉस लगा लेता है और फिर हिरोईनी बड़े प्यार से अपने हाथों से उस गाल/नाक वाले दाग को धोती है.. और फिर दोनों में प्रेम हो जाता है और फिर कुछ सालों बाद वो हीरो के कपडे धोती है..

इससे वह बड़ा प्रभावित था और बहुत प्रेरणा मिली की वो भी कुछ कर गुज़रे.. वो तो भला हो किस्मत का की कुछ करा तो सही, पर गुज़रा नहीं.. उसने अपनी दोस्तनी को भी इसी जाल में फंसाने की कोशिश की और जब उससे मिलने गया तो अपने गालों में क्रीम का एक निशान जानबूझकर छोड़ दिया.. दोस्तनी ने भी शायद वो पिक्चर देख रखी थी.. चालाक निकली.. उसने न हाथ लगाया और न ही उससे कुछ कहा.. वो बेचारा बार-बार इशारे से उस निशान को दिखाने की कोशिश करता रहा पर वह बड़ी ही अदायगी से नज़रअंदाज़ करती रही..
आस-पास वाले देखते जाते और हँसते जाते.. कुछ देर बाद रेस्टरूम जाने के बहाने दोस्तनी कट ली और बाद में मैसेज कर दिया कि कपडे धोने वाली बाई रख लो..
बेचारे का उल्लू सीधा हो गया और मुन्नी नाम न होते हुए भी बदनाम..

हम बोले, भैया सब ठीक है पर वो ३ घंटे में जो उल्लू बनते हो न, उसको वहीँ हॉल में छोड़कर आया करो.. यहाँ-वहां ले लेकर मत घूमो.. सब उस उल्लू को सीधा करते फिरेंगे..
तो वो बोला, गुरु सही कह रहे हो पर अब क्योंकि मेरा दिल टूट गया है तो क्या मैं रॉकस्टार बन सकता हूँ जैसे रणबीर कपूर बन गया था? मैंने अपना सर पकड़ने की बजाए, उसका सर पकड़ा और तबियत से टेबल पर दे मारा.. तब जा कर उसकी अकाल ठिकाने आई और वो शाष्टांग प्रणाम करता हुआ रुखसत हुआ... हमने तो उसे दिल से आशीर्वाद दे दी की वो जल्दी से बकरा बन जाए और शादी के लड्डू खाए..

अब आप भी ज़रा तबियत से इस नादान परिंदे को आशीर्वाद दे जाएं (कि मैं सृजनात्मकता की ओर फिर से आ पाऊं).. मुझे कोई घर बुला रहा है.... (ओ नादान परिंदे घर आ जा.. आआआ)....
जय राम जी की!

(नोट: अब चूँकि मैंने दो बातें बताई हैं तो आप भी २ टिप्पणी दे कर जाएं.. इसी बहाने टिप्पणियों के बाढ़ से मैं सराबोर हो जाऊंगा.. क्योंकि मुझे पता है कि मेरी ख़ुशी में ही आपकी ख़ुशी है.. नहीं? :D)

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

मौत से ज़िन्दगी

मनोज, एक सीधा-साधा मेहनती इंसान... कॉलेज से प्रथम श्रेणी में स्नातक और फिलहाल नौकरी पेशा..
घर पर माँ, एक छोटा भाई और एक छोटी बहन का पूरा बोझ उसके ऊपर..

प्रथम श्रेणी से पास होने के बावजूद एक मामूली नौकरी मिली थी बड़े शहर में.. कुछ से अपना गुज़ारा चलाता और बाकी घर पर भेजता..
बहन की शादी और छोटे भाई के लिए एक दुकान खोल के देने की अंतर-इच्छा थी पर इस नौकरी के भरोसे संभव नहीं था..

कुछ साल बीते तो सर पर जिम्मेवारी मार करने लगी.. अब थोड़ा तंग-तंग रहने लगा था.. और ना ही उसकी काबिलियत के मुताबिक़ उसे नौकरी मिल रही थी...
शहर के दोस्त सिर्फ शहरी थे, दिली नहीं.. किसी से अपना दुःख नहीं बाँट पाता और दिन-ब-दिन परेशानी से घिरता जा रहा था...
कभी-कभी अखबार पढ़ता तो पता चलता कि फलां दुर्घटना में पीड़ित के परिवार को ५ लाख मिले.. फलां बम धमाके में मृत के परिजनों को ७ लाख मिले..

सोचता, कि कभी उसके साथ भी ऐसा हो जाए तो इतने पैसों से उसकी अंतर-इच्छा शायद पूरी हो जाए.. आत्महत्या के लिए कोई पैसे नहीं मिलते थे पर सरकारी दुर्घटना में ज़िन्दगी को चंद पैसों में तोला जाता था जो कि मनोज के परिवार के लिए बहुत था...

पर उसे क्या खबर थी कि यह सोच एक दिन सच्ची खबर में बदल जाएगी..
घर लौट रहा था और ट्रेन दुर्घटना में ज़िन्दगी ने मौत को गले लगाया और फिर सरकार ने मृत के परिवार को ५-५ लाख रूपए धनराशी देने की घोषणा की...

आज एक मौत ने तीन जिंदगियों को जान दी थी पर क्या यही एक रास्ता था? क्या ज़िन्दगी, मौत की मोहताज हो गयी थी?
शायद मनोज के लिए इसके अलावा कोई विकल्प न था और उसका उत्तर "हाँ" ही होता...

बुधवार, 14 सितंबर 2011

तेरे-मेरे बीच

हिन्दी दिवस फिर से आया है आज.. मैंने सोचा कि इस हिन्दी दिवस पे कुछ नया किया जाए.. जो पहले कभी नहीं किया हो... अपने पोस्ट "तीन साल ब्लॉगिंग के" में मैंने लिखा था कि श्रृंगार रस को छोड़कर हर रस का आनंद लिया है मैंने अपनी लेखनी में.. तो इस बार हिन्दी दिवस पर कुछ नया करने की फितरत में अपनी कविता में श्रृंगार का श्रृंगार कर रहा हूँ.. मैं इस रस में नौसिखिया हूँ.. सभी ज्ञानी जनों से माफ़ी और राय दोनों की अपेक्षा है.. आपकी हर राय उत्साहवर्धन का काम करेंगी.. जय हो!

वो लरज़ते हुए होंठों का धीमे से ऊपर उठ जाना
और मेरा उस इशारे को बेबाक समझ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


वो भीड़ के शोर में सब कुछ गुम जाना
तेरा, मेरी आँखों से एक किस्सा पढ़ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


वो कई दिनों की चुप्पी का सध जाना
उस खामोशी में से संगीत निकालना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा मेरे हाथों को धीरे से छोड़ जाना
उस छोड़ने में तेरी रूठने की अदा पढ़ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन आँखों को धीमे से बंद कर लेना
उसमें तेरी हामी को पढ़ लेना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा मेरे सर को धीमे से चूम लेना
उस स्पर्श में तेरे प्यार को जी जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन आखों में शरारत का भर आना
उस शरारत में तेरा बचपन देख जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन सुर्ख आँखों से मोतियाँ बिखेरना
मेरा उन मोतियों को सहेज के समेटना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...

और जाते-जाते एक ख़ुशी की बात... मेरी और मेरी माँ की कुछ कविताएँ "अनुगूंज" में प्रकाशित हुई हैं जिसकी संपादिका "श्रीमती रश्मि प्रभा जी" हैं... उनको विशेष आभार और बाकी सभी लोगों का जिसका इस पुस्तक को प्रकाशित करने में सहयोग रहा...
यह मेरे, मेरे परिवार और मेरे दोस्तों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात रही जिसका आप सब भी हिस्सा हैं..

सोमवार, 15 अगस्त 2011

नेता का कुत्ता

बहुत दिन हो गए नीचे वाली चंद पंक्तियों को.. मैं स्वतंत्रता दिवस का इन्तज़ार तो नहीं कर रहा था पर परिस्थितियों ने इस पोस्ट के लिए इसी दिन को मुनासिब समझा है..

क्या किसी को याद भी है कि आज से कुछ १ महीने पहले मुंबई में बम-ब्लास्ट्स हुए थे? शायद नहीं.. सबको हिना रब्बानी खार, राखी का बकवास, भारतीय क्रिकेट टीम के पस्त हालत और न जाने क्या क्या याद है पर यह बात सबके दिल-ओ-दिमाग से धूमिल हो चुकी है कि कई लोग १३ तारीख के हमले में मरे थे.. हमारी याददाश्त ही इतनी है.. क्या करें..

एक तरफ अन्ना और अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और दूसरी तरफ हम एक दूसरे को एस.एम्.एस करके आज़ादी की बधाई दे रहे हैं.. पर कैसी आज़ादी.. इसकी खबर किसे है? हम में से ज्यादातर लोगों के लिए तो यह फिर से एक छुट्टी का दिन होगा.. कई लोग तो इतने लंबे साप्ताहांत का आनंद मनाने पहाड़ों पर पहुँच गए हैं और कई घर पर आराम करेंगे...

खैर यह दस्तूर तो चलता रहेगा.. जिसे कुछ करना है वो कुछ न कुछ ज़रूर करेगा और जिसे कुछ नहीं करना है, वह तो यमराज सामने आने पर भी कुछ नहीं करेगा (दरअसल तब तो वो सही में कुछ कर ही नहीं सकता.. पर कहने को कह रहा हूँ)

और रही बात यह कविता की तो यह संबोधित कर रहा है इस देश के नेताओं की नज़रों में आम आदमी को..

इस बार तो चमत्कार ही हो गया
आतंकवादी बर्बाद हो गया


हर साल की तरह इस साल भी वो दबंग बन के देश में आये
और मनमानी से जगह-जगह बम लगाए


किसी बाज़ार, किसी स्कूल को निशाना बनाया
आम आदमी फिर से इसकी चपेट में आया


ट्विटर, फेसबुक, न्यूज़ चैनल सबने घुमाया
न धड़कने वालों का भी दिल दहलाया


सबने अपने-अपनों की सलामती का पता लगाया
फिर कुछ-कुछ ने बचने की ख़ुशी को पी कर भी मनाया


जिंदा-दिलों ने एक कदम और बढ़ाया
ट्वीट, स्टेटस और ब्लॉग से मदद की कोशिश में हाथ बढ़ाया


अगले दो दिन में सब क्रिकेट में मशगूल थे
और बाकी ऑफिस-ऑफिस में गुल थे


टीवी वालों की याददाश्त पर ताला लग चुका था
हमले की जगह "राखी का बकवान (बकवास बयान)" और "हिना का हैण्डबैग" ले चूका था


जब सब अपनी-अपनी ज़िन्दगी में मस्त हो चुके थे
और किसी आतंकवादी के हाथों मरने का इंतज़ार कर रहे थे
तभी एक बड़ी खबर आई


टीवी वालों को खबर मिल गयी थी
जेब भरने की चाबी मिल गयी थी


खबर थी की ४ आतंकवादी धरे गए हैं
और अदालत में पेश भी हो गए हैं


अदालत ने उन्हें दोषी करार ठहराया है
बिना चश्मदीद गवाह के भी फांसी का फैसला आया है


लोगों में विचार-विमर्श हो रहा है
भैया इस देश को क्या हो रहा है?


अगर इतनी जल्दी फैसले आते गए
तो मेहमान-नवाजी भला कैसे होगी?
मोमबत्तियां कब जलाएँगे?
सहानुभूति जागृत कैसे होगी?


पर सबने एक सबसे बड़ा सवाल उठाया
कि भैया, इतनी जल्दी फैसला कैसे आया?


यह तो भारतीय इतिहास में चमत्कार हुआ है
कि आतंकवादी का फांसी के साथ सत्कार हुआ है


पर किसी के समझ यह बात नहीं आ रही थी
कि यह बदलाव किस महापुरुष की दादी थी


फिर एक शख्स ने सच का खुलासा किया
जिसे सुन सबके मन को दिलासा मिला


कि देश आज भी वैसा ही है
और आतंकवादी ही यहाँ का नेता भी है


यह तो एक "स्पेशल" केस था
जहाँ आतंकवादी भूल कर बैठा था


उसने निशाना तो आम आदमी को बनाया था
पर साथ में एक नेता का गुस्सा भी फ्री में आया था


उस नेता ने ही यह त्वरित कार्यवाही करवाई थी
और साथ ही साथ जनता की भी वाह-वाही पायी थी


उसने एक तीर से दो निशाने लगाए थे
एक ओर आतंकवादी मारे, दूसरी ओर वोट बनाए थे


जो नेता हर हमले पर शान्ति बनाये रखने को कहता था
आज वही आग-बबूला हो आतंकवादियों को मारने की बात कर रहा था


उसके खून में अचानक से उफान आया था
पूरे तन-मन में बदले की आग को भड़काया था


बदले की आग में उसने पूरी शक्ति लगा दी
सबको पैसों से तोल, कार्यवाही तेज़ करवा दी


लोगों ने पूछा, भैया इस हमले आपका भी कोई करीबी मरा था क्या?
तब सच्चाई निकली और वह बोला - "मेरा अज़ीज़ पॉमेरियन कुत्ता शहीद हुआ था"

आशा है कि हमें आज़ादी जल्द ही मिलेगी इस भाग-दौड़ से... संकीर्ण सोच से... आलस्य से... नग्नता से... कुंठित खुद से... खुद से..
तब सही मायनों में भारत आज़ाद कहलाएगा..

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

परवरिश

संगीत के क्षेत्र में गुरूजी ने बहुत नाम कमाया था.. कई देशों और महफ़िलों की शान रह चुके थे वो..

अब उनकी तमन्ना थी की उनकी दोनों बेटियाँ भी संगीत के क्षेत्र में उनकी तरह नाम करे और समाज और देश का भी सर ऊँचा करे..

अच्छे ख्यालों से उन्होंने दोनों बेटियों को संगीत की शिक्षा-दिक्षा देनी शुरू की..

बड़ी बेटी का तो खूब मन लगता था और पिताजी की एक आवाज़ में ही वह आ कर रियाज़ के लिए बैठ जाती पर छोटी वाली को यह पसंद नहीं आता था..
कई बार डरा कर बुलाना पड़ता तो छोटी वाली बहुत सहम जाती पर कुछ कर नहीं सकती थी.. उसका सहमा हुआ चेहरा उसके पिता को नहीं दिखता था..

कुछ सालों तक ऐसा चलता रहा और छोटी के अंदर रोष और गुस्सा बढ़ता रहा पर बोला उसने कुछ नहीं.. पिताजी ज़बरदस्ती करके रियाज़ के लिए बिठा लेते और उसे बैठना पड़ता..

पर एक दिन वो भरा हुआ ज्वालामुखी फट पड़ा.. छोटी रियाज़ से उठ खड़ी हुई और पिताजी पर बरस पड़ी.. बोली-"नहीं करना मुझे रियाज़, मुझे संगीत में रूचि नहीं है.. क्या आपको यह बात इतने सालों में समझ नहीं आई? केवल ज़ोर देने से मैं संगीत नहीं सीख सकती.. मेरी दूसरी कलात्त्मकता को आपके ज़ोर-ज़बरदस्ती ने मौत की घूँट पिला दी है.. आपने मेरी जिंदगी के कई विकासशील सालों को बर्बाद कर दिया है"

इतना कहकर वह रोने लगी और पैर पटकती हुई कमरे से चली गयी..

बड़ी और गुरूजी भौंचक्के से बैठे देख रहे थे..
गुरूजी कभी बड़ी को देखते और कभी दरवाज़े की ओर.. सोच रहे थे परवरिश तो दोनों की एक ही हुई है फिर यह बदलाव कैसा?
पर उनके ज़हन में यह बात नहीं आई कि सभी इंसानों को एक ही तराज़ू में नहीं तोला जा सकता..

जाते-जाते मेरा रिकॉर्ड किया हुआ एक गीत सुनते जाइए: चाँद सिफारिश (फ़ना)

गुरुवार, 26 मई 2011

सुख-दुःख के साथी

कॉलेज खत्म होने में बस कुछ ही दिन बाकी थे.. और हर किसी कि तरह सबको ये गम सता रहा था कि अब पता नहीं कब मुलाक़ात हो...
और सही भी था.. एक शहर में रहकर मिलना मुश्किल हो जाता है तो दूसरे-दूसरे शहरों में रहने वालों कि तो बात ही क्या..

राहुल और मोहित काफी अच्छे दोस्त थे पर दोनों कि नौकरी अलग-अलग शहरों में थी... उन्हें भी पता था कि अब किस्मत की बात है जब उनकी अगली मुलाक़ात हो..

कई साल बीत गए और राहुल की सगाई हुई और उसने मोहित को बुलाया.. पर नौकरी में व्यस्त रहने के कारण वह पहुँच नहीं पाया..
राहुल ने शादी में आने की पक्की बात कही और मोहित राज़ी भी हुआ.. पर बिलकुल अंतिम समय में उसे काम से विदेश यात्रा करनी पड़ी और वह फिर से राहुल कि ख़ुशी में शामिल ना हो सका..
अगला शुभ अवसर राहुल की बेटी होना था और इस बार मोहित खुद की शादी होने के कारण नहीं जा पाया..
राहुल को अब बहुत बुरा लगा कि हर ख़ुशी के मौके पर मोहित नहीं आता है पर वह भी इसके लिए कुछ कर नहीं सकता था...

फिर एक दिन कई सालों बाद मोहित राहुल के दरवाज़े पर खड़ा था.. अवसर इस बार भी था पर राहुल ने ज्यादा लोगों को बताया नहीं था.. मोहित को भी नहीं...
राहुल के पिता का निधन हो गया था और उसके सामने मोहित, उसका परम-मित्र खड़ा था उसके साथ, उसके दुःख में..
वह मित्र जो उसकी किसी ख़ुशी में शामिल नहीं हो पाया था पर दुःख में उसके कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देता हुआ खड़ा था...
राहुल ज्यादा कुछ बोल नहीं पाया.. आश्चर्य से कुछ क्षण देखता रहा और फिर रोने लगा..

आज उसे एक गीत बिलकुल विपरीत मालूम हो रहा था - "सुख के सब साथी, दुःख में न कोई"

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

तीन साल ब्लॉगिंग के

आज ब्लॉग ३ साल का हो गया है... कुछ मेरी और ज्यादा आपकी बदौलत..

३ साल काफी लंबा समय होता है और तीन साल में काफी कुछ बदल गया है और काफी कुछ आज भी वैसा का वैसा ही है..
मेरी सोच, मेरे देखने, मेरे समझने, मेरे परखने का तरीका बदला है... ३ साल पहले मैं छात्र था, आज एक व्यावसायिक..

मैं, मैं वही हूँ जो आज से ३ साल पहले था.. ३ साल पहले मैं नंबरों के लिए कभी नहीं रोता था, आज भी नहीं...
मैं आज भी हिन्दी में ब्लॉग करता हूँ और बहुत खुश हूँ.. मैं कट्टर हिन्दीवादी नहीं हूँ पर अपनी मातृभाषा का सम्मान किसी और भाषा से ज्यादा करता हूँ..
आज मैं कई लोगों में अपनी ज़रा सी पहचान हिन्दी की बदौलत ही बना पाया हूँ इसलिए हिन्दी को मेरा शत्-शत् नमन हमेशा रहेगा..

हिन्दी मुझे विरासत में तो नहीं मिली पर मेरी माँ का हिन्दी में कविताएँ लिखना एक कारण है मुझे हिन्दी में लिखने को प्रेरित करने के लिए...
पर अब खुद से आशा है कि हिन्दी को उसके असली स्तर पर पहुंचाने में मेरा प्रयास १०० प्रतिशत रहेगा...
ब्लॉगिंग के शुरूआती दौर में अपनी सबसे प्रिय कविता लिखी थी - "कोई लौटा दे.." आज तक कोई नहीं लौटा पाया है.. जिंदगी में गए हुए पल कभी लौट कर नहीं आते हैं.. एहसास था, है और आशा है कि हमेशा रहेगा...

उसके बाद कुछ बिट्स पिलानी से जुड़े हुए वाकये और छोटी कविताएँ लिखीं जिसमें कईयों में मेरे विन्गीज़ का भी साथ रहा क्योंकि इंजीनियरिंग का तृतीय वर्ष सबसे दर्द और कष्टदायक होते हैं और दर्द-औ-दुःख में दोस्त हमेशा ही साथ रहते हैं जो मुझे बिट्स पिलानी ने ज़रूर दिए हैं...
तृतीय वर्ष में ही अपने अग्रजों के नाम एक काफी लम्बी कविता लिखी - "बचपन से बुढ़ापा - Psenti Special" जिसे काफी लोगों ने सराहा और मुझे भी बहुत ख़ुशी हुई..

"गिनती ज़िन्दगी की" आज भी मेरे लिए सबसे कम शब्दों में ज़िन्दगी का व्याख्यान है..

तत्पश्चात कुछ हलके-फुल्के हंसी मज़ाक वाले पोस्ट जैसे "इमोसनल अत्याचार नहीं, प्यार" और "जंग का मैदान, मन है शैतान" जैसे कुछ लेखों ने ब्लॉग में जगह बनाई...

हिन्दी के गिरते स्तर और दुर्गति पर भी एक-आध पोस्ट लिखे पर फिर कहीं जा कर लगा कि हिन्दी पढ़ने वालों की गिरती तादाद का कारण क्या है? और इसी कारण की खोज करते-करते मैं लघु कथाएँ लिखने लगा जिसमें एक सन्देश हो और जो इतनी छोटी हो कि हिन्दी ना पढ़ने वाले भी यह समझकर पढ़ लें कि छोटा सा ही तो है पढ़ लेते हैं और मेरे ख्याल से यह बहुत ही कारगर रहा और मैं इसे कायम रखूँगा..
लघु कथाओं में सबसे अच्छी मुझे "लडकियां बनाम समाज", "आपत्ति", "एक दृढ़ फैसला?" और "दर्द-निवारक" लगे.. बाकियों को भी मेरे पढ़ने वालों ने पसंद किया जिसके लिए मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ..
"रजनी चालीसा" मुझे आज भी बहुत पसंद है.. रजनीकांतजी की बात ही कुछ ऐसी है!

"आत्महत्या" एक काले नागिन जैसी कविता थी जिसमें लोगों ने मुझे ऐसी नकारात्मक चीज़ें लिखने पर अप्रसन्नता जताई जिसका जवाब मैंने एक रंगीले पोस्ट "जियो जी" से दिया..

इसके अलावा कई गीतों को भी अपने ब्लॉग पर स्थान दिया जिसपर लोगों के सकारात्मक और आलोचनात्मक सुझाव आये जिससे मुझे अपने आप को बेहतर करने का भी मौका मिला..

३ साल... इन 3 सालों में मैंने हास्य, भयानक, रौद्र, करुण, विभत्स, वीर, अद्भुत और शान्ति रस के ऊपर लगभग-लगभग लिखा है..
श्रृंगार पर फिलहाल कुछ नहीं लिखा है.. शायद उस मामले में उतना परिपक्व नहीं हूँ.. होने पर आपको स्वतः ही कुछ लेख नज़र आने लगेंगे..

ब्लॉगिंग करके बहुत ख़ुशी मिलती है.. जहाँ मैं अनजान लोगों के विचारों से रूबरू होता हूँ और उन्हें अपने विचारों से रूबरू करवाता हूँ.. और अभी तक मुझे ब्लॉगजगत में काफी अच्छे और सुलझे हुए लोग ही मिले हैं जिसके लिए मैं इश्वर का शुक्रियादा करता हूँ और यह भी आशा रखता हूँ कि आगे आने वाले वर्षों में मेरी मुलाक़ात और भी ऐसे लोगों से हों जो अच्छे विचारधाराओं को इस समाज में फैला रहे हैं और एक सदृढ़ समाज बनाने की प्रक्रिया में हाथ बंटा रहे हैं..

कई लोगों की टिप्पणियाँ और विचार हमेशा से मेरे लिए प्रेरणास्रोत रहे हैं.. जैसे समीर लाल जी, अल्पना वर्मा जी, शैलेश झा, निरुपम आनंद, निर्झर'नीर, अनिल पुसादकर जी, तपन अवस्थी, निर्मला कपिला जी, नीरज गोस्वामी जी, शरद कोकास जी, दिव्या जी, रश्मि प्रभा जी, प्रवीण पाण्डेय जी, सोम्या जी और और भी कई लोग जिनका नाम याद न कर पाने के लिए बहुत क्षमा चाहता हूँ..

आज ब्लॉगिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है और इसके जरिये मुझे काफी अच्छे लेख पढ़ने को और जानने को मिलते हैं.. मैं इसे अपनी ज़िन्दगी भर तक जारी रखना चाहता हूँ क्योंकि मेरी माँ कहती हैं कि एक बार किसी चीज़ को पकड़ लो तो उसे पूरा पार लगा कर ही छोड़ो और ब्लॉगिंग की नैया तो ज़िन्दगी के उस छोर तक चलेगी...

आशा है कि आपका प्यार, टिप्पणियाँ और सुझाव यूँ ही मुझे प्राप्त होते रहेंगे और मैं उनसे प्रोत्साहित होकर आपके समक्ष कुछ अच्छा पेश करने के काबिल हमेशा रहूँगा...
अंत में एक बार फिर से  मेरे ब्लॉग को इसके तृतीय वर्षगाँठ की हार्दिक बधाई और आप सभी को भी शुभकामनाएं...

आभार

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

पढ़े-लिखे अशिक्षित

२ दिन बाद होली होने के कारण मेट्रो में काफी भीड़ थी.. लोग अपने-अपने घर पहुँचने की जल्दी में थे और शुक्रवार होने के कारण भीड़ कुछ ज्यादा ही हो गयी थी..
मैं भी अपने घर जाने के लिए मेट्रो में चढ़ा हुआ था और मेट्रो की हालत ऐसी कि तिनका रखने तक की जगह नहीं..
मेरे ठीक सामने एक दंपत्ति खड़ा था.. दोनों उम्र में काफी छोटे लग रहे थे और माँ के गोद में ५-६ महीने का बच्चा भी था.. बच्चा रो रहा था और बार-बार दोनों को परेशान कर रहा था और सीट न होने के कारण परेशानी और बढ़ गयी थी..

मेरे सामने एक हट्ठा-कट्ठा नौजवान, एक लैपटॉप बैग लिए, चश्मा चढ़ाए आराम से सो रहा था..
मैंने उसे हिलाते हुए कहा - "सर, अगर आप अपनी सीट बहनजी को दे दें तो बेहतर होगा.. बच्चा परेशान कर रहा है"
उसने उस महिला की तरफ देखते हुए तपाक से गुस्से में कहा - "नहीं, मुझे उठने में दिक्कत है" और आँखें फिर बंद कर लीं..

यह सुनकर मैं तो दंग रह गया पर इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, बगल में बैठा एक वैसा ही नौजवान उठ खड़ा हुआ और अपनी सीट बहनजी को दे दी..

वह नौजवान ना ही लैपटॉप बैग लिए हुए था, ना ही चश्मा चढ़ाए और ना ही उसकी वेशभूषा उसके आर्थिक स्थिति के सही होने का प्रमाण दे रहा था..

मुझे झटका लगा और मैं सोचने लगा - पढ़ा लिखा और धनी कौन था? यह कि वो?
और मैं दोनों को एक-एक करके देखते हुए इसी सोच में डूबा रहा...

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

चलती दुनिया

उसकी अपने-आस पड़ोस और दोस्तों से बहुत बनती थी..
वह सबको खूब प्यार देता और बदले में लोग भी उसे उतना ही सम्मान और प्यार देते..
जिंदगी बहुत ही खूबसूरत और पूर्ण लग रही थी..
धीरे-धीरे वह अपने शहर, राज्य, देश और दुनिया में भी बहुत लोकप्रिय हुआ..
वह लोगों के दिल की धड़कन बन गया था और बहुत खुश था..

उसे लगता कि लोग उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं और लोग थे भी..
कभी-कभी अहम की भावना आ जाती और लगता कि उसके बिना ये दुनिया चल ही नहीं सकती..

और एक दिन उसकी घड़ी रुक गयी.. जिंदगी खत्म, झटके में..
हाहाकार मचा.. लोग बिलखने लगे.. दो दिन तक लोगों का तांता लगा रहा उसके घर के सामने..
चाहने, न चाहने वाले लोग आते और रोते..
मोची से लेकर नेता, सब ग़मगीन... एक दिन का राज्य-शोक रखा गया..

२ दिन बाद लोग अपने दफ्तर जा रहे थे, मोची जूते सुधार रहा था, नेता देश लुटा रहा था, गृहणियां घर-घर खेल रही थीं..
३ दिन बाद सब अपनी मस्ती में मस्त और अपने गम में दुखी थे..

वह चल बसा... दुनिया अपने रंग में चलती रही.. और उसकी उस सोच पर हंस रही थी कि उसके बिना दुनिया नहीं चल सकती..

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

जियो जी!

काम, काम सब कर रहे हैं। सब व्यस्त हैं, दुखी हैं पर सब फिर भी काम कर रहे हैं।

कोई कहता है शौक बड़ी चीज़ है, हम कहते हैं काम बड़ी चीज़ है
शौक से घर थोड़े न चलता है, काम से चलता है।
शौकवाले होगे तो अच्छी स्त्री नहीं मिलेगी पर कामवाले होगे तो अच्छी स्त्री आपको ज़रूर ढूँढ लेगी।


जो केवल शौक रखते हैं, वो काम नहीं कर सकते पर जो काम करते हैं वो शौक भी रखते हैं। इसलिए जिसने भी कहा है कि शौक बड़ी चीज़ है दरअसल लोगों को उल्लू बना रहा है, अपना उल्लू सीधा करने के लिए।
वह तो बात भी गलत बेच रहा है और उत्पाद (पान-मसाला) भी।
पर उसके घर सुख है। आम लोग उसकी बात मानते हैं।
शौक रखते हैं और पान-मसाला खाते हैं। खुद परेशान है और घर वालों के लिए हैवान हैं।


"परेशान", यह शब्द जिसने भी बनाया होगा, बहुत दुखी रहता होगा। शादी-शुदा होगा शायद।


हमारे एक वरिष्ठ अग्रज हैं, बहुत मस्त। वो अपना परिचय ऐसे देते हैं:
हेलो जी, मैं फलां फलां, एक ही कम्पनी में हूँ कई सालों से, एक ही जगह हूँ कई सालों से, एक ही घर में रहता हूँ कई सालों से और फिर ऊपर देख कर थोड़ा सोचते हुए, 'हाँ, पत्नी भी एक ही है।'
उनके चेहरे पे बड़ी खुशी होती है तब। सब हँसते हैं, वो भी, सब खुश, वो भी।
ऐसे लोगों से मिलते रहना चाहिए।


कुछ लोग भाग्यशाली होते हैं जो एक को भी संभाल लें। वरना भारत में ऐसी परेशान आत्माओं की कमी नहीं है जिन्होंने खुशी-खुशी ४-४ शादियाँ की और "हम दो, हमारे दो" की वाट लगा दी। बोले तो दुर्गति कर दी।
वाट तो उनकी भी लगती ही है पर इंसान दुनिया में वाट लगवाने ही आया है। खुद के पैर पे कुल्हाड़ी मारते हैं और हमें हँसने का मौका देते हैं। ऐसे लोग भी होने चाहिए दुनिया में नहीं तो हंसी-ठिठोली कैसे होगी? नित नए-नए चुटकुले कैसे बनेंगे?


हमारा एक हमउम्र मित्र है। वो परेशान है। बाकी कई लोगों की तरह। पर वो अपनी परेशानी यदा-कदा जाहिर करता रहता है इसलिए उसी की बात बता रहा हूँ।
वो ऑफिस जाता है, घर आता है, रस्ते में टहलता है, मॉल में घूमता है, सड़कों पर चलता है तो जोड़ों को देख कर जलभुन जाता है। अपने गम को खुद पीता नहीं है, हमें भी फ्री में देता है। कहता है यार कोई तो हो अपनी भी जिसे दिल की बात बता सकें। हम सोचते हैं, ये बात भी तो दिल की है और तुम बता भी रहे हो हमें, फिर किसी और की क्या ज़रूरत? पर हम कुछ कहते नहीं, उसे दिलासा देते हैं कि कोई बात नहीं हम भी तेरे जैसे ही हैं पर देख हम रोते हैं क्या? हमें अपने घर वालों पर पूरा भरोसा है। वो कोई पल्ले बाँध ही देंगे। नहीं तो रिश्तेदारों की भी कमी नहीं है।


भगवान ने घर वालों को इसके लिए बनाया हो न हो पर हमारे रिश्तेदारों को यही काम दे कर भेजा होगा। हमारी नौकरी लगी तो लोग ऊँगली, आँख और आवाज़ सब उठाने लगे, पूछते हैं "शादी कब कर रहे हो?" हम सोचते हैं, "ऐं"?
पर हम चुप रहे। हमने सोचा, चलो थोड़ी ज़हमत इन्हें भी उठाने दो। और कुछ काम तो हैं नहीं, यही सही।


रिश्तेदारों में भी जो पुरुष वर्ग होता है उसे इन सब कामों में खासी दिलचस्पी नहीं होती है।
पर महिला-वर्ग में तो उथल-पुथल मची रहती है। उनके मन में शादी की बात से ही सुनामी आ जाती है।
वो लड़कों को खूब चिढ़ाते हैं। किसी भी शादी में जाते हैं तो हर लड़की का बायो-डाटा ले कर आते हैं और फिर चिढ़ाते हैं।
और एक दिन लड़का घर से भाग कर शादी कर लेता है, सब हाथ-मलते रह जाते हैं।
सबकी दिली ख्वाहिश थी कि ये लड़का उन्हीं के हाथों सूली चढ़े पर लड़के ने किसी को मौका नहीं दिया, ख़ुदकुशी ही कर ली।


हाँ तो मैं बात कर रहा था परेशानी की। मेरा अदद दोस्त परेशान है। उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है और लड़की दोस्त भी कम ही हैं, इसलिए।
और भी कई परेशान हैं। जिनके पास गर्लफ्रेंड है। वो हमेशा रोती हैं। खाने को पूरा दो तो भी रोती ही रहती हैं, पड़ोस में किसी ने कुछ बोल दिया तो रो पड़ती हैं, कुछ नहीं कहा तो रोती हैं, फोन नहीं किया तो रोती हैं और फोन किया तो उसपर भी रोती हैं। बॉयफ्रेंड समंदर है, उसमें रो के गिरे आंसूओं का कोई असर नहीं होता है। वो सोचता है, 'कहाँ फंस गया' पर किसी तरह काम चला रहा है। वो भी परेशान है।


यह बात अपने दोस्त को भी बताई पर जब मुनि विश्वमित्र को मेनका ने डिगा दिया था फिर मेरा दोस्त तो बढ़ते काम और बढ़ते दाम का मारा एक आम इंसान है, उसकी क्या बिसात?
वो आज भी परेशान हैं। हम भी उसकी परेशान इमें शरीक होने के लिए तत्पर हैं, इसलिए परेशान हैं।


पर परेशानी से ज़िन्दगी नहीं चलती। ज़िन्दगी में उथल-पुथल हो रही हो तो उसे परेशानी नहीं कहते हैं, वो तो मात्र उथल-पुथल है।
कोई कहता है सुख बांटो, बढ़ता है। हमने का सही है बॉस, बिलकुल सही है।
उसी ने फिर कहा, दुःख बांटो, घटता है। मैं वहाँ से कट लिया। मुझे अंदाज़ा लग गया था कि यह ज़रूर अपनी दुःख-भरी कहानी सुनाने वाला है, इसलिए भूमिका बाँध रहा है।


दुःख बांटने से घटता नहीं है। आजकल सब कुछ बढ़ता है। काम, दाम, घोटालों की रकम, जंक फ़ूड, मोटापा।
लोग जहाँ देखो दुःख बाँट रहे हैं पर ये साला दुःख तो वैसा का वैसा है। एक खतम नहीं होता कि दूसरा हाज़िर!
इसलिए मैंने सोचा कि दुःख बांटों पर केवल वैसे लोगों के साथ, जो आपके साथ सुख भी बांटते हैं। वही सही मायनों में आपको ठीक तरीके से समझते हैं। वो आपको सलाह देंगे जो आपके लिए सही होगा। केवल सहानुभूति से काम नहीं चलता। हर दुःख का उपाय होता है जो कि कुछ विरलो के पास ही होता है। बाकी सब तो सलाहबाज़ी में बहुत विश्वास रखते हैं।


इसलिए अपने दिल को समंदर बना लो जिसमें दुःख के आँसू की कोई बिसात न रह जाए। अरे कब तक यूँ रोते-रोते फिरोगे? वो कहते हैं न "लिव लाइफ किंग साईज" केवल सुनो मत, जियो!


और मैं न ही अपना उल्लू सीधा कर रहा हूँ और न ही किसी को बना रहा हूँ।
काम बड़ी चीज़ है, शौक नहीं।
काम करोगे तो शौक के लिए भी टाइम निकल आएगा, नहीं तो तू हाथ मलता रह जाएगा।


हमने तो यही तय किया है। खुश रहेंगे, खुशी बांटेंगे और दुःख की वाट लगाते फिरेंगे। बहुत मज़ा आता है,  कोशिश करियेगा।


एक खूबसूरत नगमा आप सब के लिए छोड़े जा रहा हूँ, पढ़िए, सोचिये और अमल में लाइए:
हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ न बोलिए

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

आत्महत्या

 
वो निःशब्द, निस्तब्ध खड़ी रही,
हम हँसते रहे, फंदे कसते रहे,
वो निर्लज्ज कर्ज में डूबती रही,
हम उड़ती ख़बरों को उड़ाते रहे,
वो रोती रही, सिसकती रही,
हम बेजान खिलौनों से चहकते रहे,
वो चीखती रही, चिल्लाती रही,
हम अपने जश्न में उस आवाज़ को दबाते रहे,
वो डरती रही, बिकती रही,
हम खरीदारों का मान बढ़ाते रहे,

फिर एक दिन,
उसने आत्महत्या कर ली,
हम पन्ने बदलते रहे,
हम चैनल टटोलते रहे,
हम चाय पर बहस करते रहे,

ठंडी चाय पर मामला ठंडा हुआ,
हम ज़िन्दगी को उसी ज़िन्दगी की तरह जीते रहे,
आज फिर से,
वो निःशब्द, निस्तब्ध, निर्लज्ज खड़ी है...
सिसकती, दुबकी कहीं जड़ी है..
इंतज़ार उसे अब न्याय का नहीं है,
इंतज़ार है तो बस
आत्महत्या का..