चिलचिलाती धूप ...उड़ती रेत...पानी की मार..
यह नज़ारा था कुछ 1 घंटे पहले का..(11a.m. 26 अप्रैल)
लेकिन इस रौद्र धूप को चुनौती देते हुए कुछ 20 आलसी प्राणी
Med-C की और जाते दिखाई दिए..
ऐसा प्रतीत हो रहा मानों इनमें से सब के सब बिल्कुल ही
बेरोजगार बैठे हों...अलग बात यह है की sem end exams
(Compre) अब मात्र 2 ही दिन की दूरी पर है..
वाह BITSian आपकी जय हो...जय हो....
हाँ तो वाक्या कुछ ऐसा है की Inter-Bhawan(Hostel) क्रिकेट
मैच के Finals आज थे...हमारे खेल सचिव(Sports Sec) को इसके
लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, वैसे भी मैं आलसी शब्द का प्रयोग दूसरी बार
प्रयोग करना उचित नहीं समझता |
खैर जो भी हो खेल में एक ऐसा पल नहीं था जब ऐसा ना लग रहा हो कि,
अब गिरे, तब गिरे..आख़िर सिर्फ़ 8 नंबरों को लिए niteout मारना भी तो
BITSian ज़िन्दगी का एक हिस्सा ही है..जय हो जय हो....
यह मानता हूँ कि खेल का अंजाम हमारे 'Court' में नहीं रहा पर इस बात
से तो हम संतुष्ट हैं कि हमने उन्हें कांटे कि टक्कर तो ज़रूर दी..
एक बात जो मैं समझता हूँ BITS को और दूसरे कॉलेजों से अलग करता है,
वह यह है कि यहाँ पर मानसिक सहनशक्ति को साथ-साथ आपको शारीरिक
शक्ति में भी निपुणता हासिल करने का पूरा मौका दिया जाता है और वो भी मुफ्त में.
अब जहाँ 1 ही sem में तापमान शुन्य से 50 पहुँचने में देर ना लगती हो, तो हो गई
ना आपकी 'Physical Exercise'?
तभी तो कहते हैं - BITS - "रेगिस्तान में फव्वारा" ||
नया क्या?
शनिवार, 26 अप्रैल 2008
वाह री बिट्स !!!
सोमवार, 21 अप्रैल 2008
कोई लौटा दे...
यह कविता मेरे उस बचपन की याद में लिखी गई है जिसे याद करके मैं आज भी कभी-कभी सिहर उठता हूँ | हाँ,मैं आज भी जब अकेले कभी बैठा होता हूँ तो मुझे वो मासूम चेहरा याद आता है और बस अपने कन्धों से अपनी आंखों को पोंछ भर लेता हूँ | मैं यह नहीं कहता हूँ कि आज हम जिस राह पर हैं. वो कतई भी अच्छा नहीं है | नहीं, यह हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है जिससे हर एक इन्सान को गुज़रना होगा | लेकिन एक बात तय है कि हम जितने निश्छल उस समय थे, आज शायद कमी हमारे अन्दर ज़रूर है | आज हमारी हर एक सोच में कुछ दुर्भावना ज़रूर होती है जिसे मिटाने की ज़रूरत समय की एक आवश्यक मांग है, इस दुनिया की..."हमारी" दुनिया की |
इस कविता की शुरुआत दिसम्बर 2007 में हुई थी जब मैं ट्रेन में दिल्ली से घर जा रहा था |
और ख़ास बात यह है कि उस समय मैंने इसे अपने मोबाइल में टाइप करना शुरू किया था जो की आज आप देख रहे हैं कि आपके सामने कितनी लम्बी कविता के रूप में प्रस्तुत है |
सुबह से मन कचोट रहा है,
कुछ खोये हुए लम्हों को ढूँढ रहा है,
आज फ़िर रोने का दिल कर रहा है,
आज फ़िर जिद करने का दिल कर रहा है,
आज वो लोरी याद आ रही है,
पलकों पे अश्क ठहरे जा रही है,
वो चलने की कोशिश में बार-बार गिरना,
गिर-गिर के भी बार-बार कोशिश करना,
वो ज़ोर-ज़ोर से बिंदास गाना गाना,
वो नए-नए पोज़ में फोटो खिंचवाना,
वो माँ का गोद में खिलाना,
वो पापा का सख्त हाथों से सहलाना,
वो दादा-दादी का प्यार से बाबू कहकर बुलाना,
और हमारा चॉकलेट लेकर फ़िर से भाग जाना |
हर सुबह स्कूल जाने से पहले रूठना,
और स्कूल पहुँचते ही सब कुछ भूलना,
आज याद आ रहा है वो स्कूल का Lunch-Time,
और थोड़ी सी अनबन के बाद का Punch-Time,
वो हर एक Punch के बाद कट्टी हो जाना,
और दूसरे दिन उसी मासूमियत से अब्बा हो जाना,
वो छुट्टी के बाद दिल खोल के चिल्लाना,
और घर पहुँचते ही सीधे T.V. चलाना,
माँ का ज़ोर से डाँटना-डपटना,
और Tuition-Teacher के आते ही मुंह का लटकना,
वो हर दिन जा कर मैदान में कबड्डी खेलना,
और घर लौटकर चुपके से कपडों के दाग साफ करना,
वो माँ के हाथों से बनाये खाने पे नाराज़गी जताना,
और फ़िर बाहर खाना खाने की जिद पे अड़ना |
वो शाम को कॉलोनी के बच्चों के साथ,
छुपम-छुपाई, पकड़ा-पकड़ी, London Bridge हाथों में हाथ,
फ़िर रात में चैन की नींद सोना,
और सुबह माँ के जगाने पर ही उठाना |
हर Sunday का बेसब्री से इंतज़ार,
और घुल-मिल कर मनाना हर एक त्यौहार,
बड़ों के सामने ऊँची बोली में ना बोलना,
और छोटों से भी प्यार से बात करना |
वो कौन सा पल था जब हमने कहा की हम बड़े हो गए हैं,
सब की नज़र में समझदार हो गए हैं,
मैं फ़िर से उस पल में जाना चाहता हूँ,
और उसे अपनी ज़िन्दगी से मिटा देना चाहता हूँ |
बड़े क्या हुए शायद हँसी ही कहीं गुम हो गई है,
रोने की बात तो यह है कि आज ठीक से रो भी नहीं पाते हैं,
लोरियां तो केवल फिल्मों में ही रह गई है,
और अब तो जिद करने से भी घबराते हैं,
गाना तो केवल बाथरूम में ही होता है,
हर फोटो में बस बनावट झलकता है |
एक बार गिरे तो समझो जीवन का अंत है,
एक बच्चे नज़र से देखो तो वो भी अनंत है,
माँ तो केवल खाने पर ही याद आती है,
हैलो, पापा, फीस भर देना नहीं तो fine लग जाती है,
आज दादा-दादी हैं हमारे दिल से कोसों दूर,
प्यार के मोती हुए चकनाचूर |
आज कॉलेज जाने से पहले.....ओहो..जाते ही कहाँ हैं?
Lunch-Time व्यस्त Time-Table में बसा है,
छुट्टी होने पर सीधे रेडी पर आना,
और कमरे में पहुँचते ही कंप्यूटर चलाना,
खेल तो केवल AOE और CS ही रह गए हैं,
मिलने के नाम पर केवल Gtalk और Orkut ही बच गए हैं,
रात में सोने का कुछ भी नहीं है ठिकाना,
सुबह क्या उठना, क्या नहाना ?
Sundays तो अब Girl/Boy Friend के नाम हो गए हैं,
और त्यौहार के नाम पर OASIS/BOSM/APOGEE ही रह गए हैं,
अपशब्दों का इस्तमाल गर्व के साथ होता है,
और बेचारा मन भीतर ही भीतर रोता है |
वो Time-Machine कहाँ से लाऊँ ?
वो सादगी कहाँ से लाऊँ ?
वो मधुरता कहाँ से लाऊँ ?
वो मासूमियत कहाँ से लाऊँ ?
ज़िन्दगी में एक मकसद ज़रूर हो,
वो हँसी, वो रोना, वो मासूमियत, वो बचपन,
कभी हमसे जुदा ना हो |
कभी हमसे जुदा ना हो |
धन्यवाद
-प्रतीक
इस कविता की शुरुआत दिसम्बर 2007 में हुई थी जब मैं ट्रेन में दिल्ली से घर जा रहा था |
और ख़ास बात यह है कि उस समय मैंने इसे अपने मोबाइल में टाइप करना शुरू किया था जो की आज आप देख रहे हैं कि आपके सामने कितनी लम्बी कविता के रूप में प्रस्तुत है |
सुबह से मन कचोट रहा है,
कुछ खोये हुए लम्हों को ढूँढ रहा है,
आज फ़िर रोने का दिल कर रहा है,
आज फ़िर जिद करने का दिल कर रहा है,
आज वो लोरी याद आ रही है,
पलकों पे अश्क ठहरे जा रही है,
वो चलने की कोशिश में बार-बार गिरना,
गिर-गिर के भी बार-बार कोशिश करना,
वो ज़ोर-ज़ोर से बिंदास गाना गाना,
वो नए-नए पोज़ में फोटो खिंचवाना,
वो माँ का गोद में खिलाना,
वो पापा का सख्त हाथों से सहलाना,
वो दादा-दादी का प्यार से बाबू कहकर बुलाना,
और हमारा चॉकलेट लेकर फ़िर से भाग जाना |
हर सुबह स्कूल जाने से पहले रूठना,
और स्कूल पहुँचते ही सब कुछ भूलना,
आज याद आ रहा है वो स्कूल का Lunch-Time,
और थोड़ी सी अनबन के बाद का Punch-Time,
वो हर एक Punch के बाद कट्टी हो जाना,
और दूसरे दिन उसी मासूमियत से अब्बा हो जाना,
वो छुट्टी के बाद दिल खोल के चिल्लाना,
और घर पहुँचते ही सीधे T.V. चलाना,
माँ का ज़ोर से डाँटना-डपटना,
और Tuition-Teacher के आते ही मुंह का लटकना,
वो हर दिन जा कर मैदान में कबड्डी खेलना,
और घर लौटकर चुपके से कपडों के दाग साफ करना,
वो माँ के हाथों से बनाये खाने पे नाराज़गी जताना,
और फ़िर बाहर खाना खाने की जिद पे अड़ना |
वो शाम को कॉलोनी के बच्चों के साथ,
छुपम-छुपाई, पकड़ा-पकड़ी, London Bridge हाथों में हाथ,
फ़िर रात में चैन की नींद सोना,
और सुबह माँ के जगाने पर ही उठाना |
हर Sunday का बेसब्री से इंतज़ार,
और घुल-मिल कर मनाना हर एक त्यौहार,
बड़ों के सामने ऊँची बोली में ना बोलना,
और छोटों से भी प्यार से बात करना |
वो कौन सा पल था जब हमने कहा की हम बड़े हो गए हैं,
सब की नज़र में समझदार हो गए हैं,
मैं फ़िर से उस पल में जाना चाहता हूँ,
और उसे अपनी ज़िन्दगी से मिटा देना चाहता हूँ |
बड़े क्या हुए शायद हँसी ही कहीं गुम हो गई है,
रोने की बात तो यह है कि आज ठीक से रो भी नहीं पाते हैं,
लोरियां तो केवल फिल्मों में ही रह गई है,
और अब तो जिद करने से भी घबराते हैं,
गाना तो केवल बाथरूम में ही होता है,
हर फोटो में बस बनावट झलकता है |
एक बार गिरे तो समझो जीवन का अंत है,
एक बच्चे नज़र से देखो तो वो भी अनंत है,
माँ तो केवल खाने पर ही याद आती है,
हैलो, पापा, फीस भर देना नहीं तो fine लग जाती है,
आज दादा-दादी हैं हमारे दिल से कोसों दूर,
प्यार के मोती हुए चकनाचूर |
आज कॉलेज जाने से पहले.....ओहो..जाते ही कहाँ हैं?
Lunch-Time व्यस्त Time-Table में बसा है,
छुट्टी होने पर सीधे रेडी पर आना,
और कमरे में पहुँचते ही कंप्यूटर चलाना,
खेल तो केवल AOE और CS ही रह गए हैं,
मिलने के नाम पर केवल Gtalk और Orkut ही बच गए हैं,
रात में सोने का कुछ भी नहीं है ठिकाना,
सुबह क्या उठना, क्या नहाना ?
Sundays तो अब Girl/Boy Friend के नाम हो गए हैं,
और त्यौहार के नाम पर OASIS/BOSM/APOGEE ही रह गए हैं,
अपशब्दों का इस्तमाल गर्व के साथ होता है,
और बेचारा मन भीतर ही भीतर रोता है |
वो Time-Machine कहाँ से लाऊँ ?
वो सादगी कहाँ से लाऊँ ?
वो मधुरता कहाँ से लाऊँ ?
वो मासूमियत कहाँ से लाऊँ ?
ज़िन्दगी में एक मकसद ज़रूर हो,
वो हँसी, वो रोना, वो मासूमियत, वो बचपन,
कभी हमसे जुदा ना हो |
कभी हमसे जुदा ना हो |
धन्यवाद
-प्रतीक
बुधवार, 16 अप्रैल 2008
वो पहली बार...
आज पहली बार ब्लॉगिंग में अपने हाथ आजमा रहा हूँ..काफ़ी लोगों के ब्लॉग्स पढ़े..काफ़ी अच्छा लगा..मुझे नहीं पता की मैं आगे क्या और कब ब्लॉग करूँगा...दरअसल बिट्स में कुछ भी स्थाई नहीं है..बोले तो कुछ भी fix नहीं है...tests कभी भी..programs कभी भी...matches कभी भी...classes कभी भी..मैंने कई बार अपने काम के लिए प्लानिंग की है लेकिन सब व्यर्थ...और यही अभी हो रहा है..
सुबह के 6 बजे हैं..और मैं अभी उठा नहीं बल्कि अभी तक सोया ही नहीं हूँ..इस तरह के schedule का भी अलग ही मज़ा है...हाँ मानता हूँ कि स्वास्थय के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं है...लेकिन who cares...we r alwayz game for any situation..bcoz we r BITSians...cheers BITS...
चलिए आप सभी को शुभ प्रभात....और मुझे शुभरात्रि...zzzzzz
टाटा...BOL
सुबह के 6 बजे हैं..और मैं अभी उठा नहीं बल्कि अभी तक सोया ही नहीं हूँ..इस तरह के schedule का भी अलग ही मज़ा है...हाँ मानता हूँ कि स्वास्थय के लिए बिल्कुल भी अच्छा नहीं है...लेकिन who cares...we r alwayz game for any situation..bcoz we r BITSians...cheers BITS...
चलिए आप सभी को शुभ प्रभात....और मुझे शुभरात्रि...zzzzzz
टाटा...BOL
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