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गुरुवार, 6 नवंबर 2014

मसाला चाय | Terms & Conditions Apply | किताब समीक्षा

"दिव्य प्रकाश दुबे", एक ऐसा नाम है जो नए प्रभावशाली युवा हिन्दी लेखकों में अपना नाम शुमार करवा चुके हैं। इनकी दो किताबें, "मसाला चाय" और "Terms & Conditions Apply" अब तक छप चुकी है और हिन्द युग्म ने इन पुस्तकों को प्रकाशित किया है। आज दोनों किताबों के बारे में साथ ही बात करेंगे।
मैं किसी भी किताब के बारे में एक ऐसी सोच पेश करने की कोशिश करता हूँ जो कि एक सामान्य पाठक सोचता हो। यह नहीं कह सकता कि कितना सफल होता हूँ पर सोच की दिशा उसी तरफ रहती है। मैं, ना ही कोई समीक्षक हूँ और ना ही बड़ा लेखक, इसलिए इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी विचार मेरे निजी हैं और इन्हें अन्यथा किसी तरह न लें :)

"मसाला चाय" और "Terms & Conditions Apply" दोनों करीब करीब एक सी किताबें हैं जिसमें हिंगलिश का पुरज़ोर प्रयोग हुआ है। हिन्दी लेखन में वैसे तो मैं 'हिंगलिश' का हिमायती नहीं हूँ क्योंकि मैं इसे भाषा में भ्रष्टाचार मानता हूँ पर लेखक ने शायद इस ख्याल से यह किताबें लिखी हैं कि आज कि जो युवा बोलचाल भाषा है, जो कि ना ही शुद्ध हिन्दी है और ना ही शुद्ध अंग्रेजी है, को लेखन में इस्तेमाल किया जाए जिससे युवा पाठक अपने आप को इन किताबों के साथ जोड़कर देख सके। शायद यह प्रयोग सफल भी रहा है और, और भी कई किताबें इन्हीं पदचिन्हों पर चलते हुए आज पाठक-बाज़ार में प्रवेश कर चुकी हैं। तो पाठक अभिविन्यस्त (oriented) दृष्टि से देखें तो यह एक बढ़िया प्रयोग है पर भाषा की शुद्धता और उच्चता पर विचार करें तो उसमें संशय हो आता है।

दोनों ही किताबों ने कई छोटी-बड़ी कहानियों का एक पुलिंदा पेश किया है और सभी बेहद रोचक और आपको अपने अन्दर समेटने वाली हैं। क्योंकि यह युवाओं को ध्यान में रखते हुए लिखी गयी कहानियाँ हैं, इसलिए ये इस तबके को तुरंत पसंद आएगी। इन कहानियों के पात्र हमारे ही इर्द गिर्द छोटे-बड़े शहरों में बसते हैं। शायद कोई कहानी आपकी अपनी भी हो, शायद आपके किसी दोस्त कि या फिर अखबार में पढ़े किसी खबर की, पर हैं ये हमारी ही। कई कहानियाँ जो छोटे शहरों की हैं आपको आपके अतीत में ले जाएँगी और वो अल्हड़ दिन याद दिला देंगी। छोटे शहरों में चुप्पी में जीती ये कहानियों को आवाज़ दी है इन किताबों ने तो बड़े शहर के युवाओं की आम ज़िन्दगी को भी बहुत ही सरल शब्दों और विचारों में पेश किया है दिव्य प्रकाश दुबे जी ने।

इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि ये दोनों किताबें ऐसी हैं जिनको चाहे आप बार बार पढ़ें पर हमेशा नई सी लगेगी वैसे ही जैसे जब भी आप अपने ख़ास दोस्तों से मिलते हैं तो नए नए से लगते हैं। ये कथाएँ आपकी दोस्त हैं क्योंकि ये आप ही के बीच की हैं, आपकी हैं।

संपूर्णतः कहूँ, तो मुझे ये दोनों किताबें बेहद आकर्षक लगी क्योंकि हल्का-फुल्का पढ़ने का भी अपना ही मज़ा है वरना प्रेमचंद, निराला, इत्यादि तो हम बचपन से ही पढ़ते आये हैं :)

रविवार, 17 अगस्त 2014

दर दर गंगे (किताब समीक्षा)

कई सालों बाद कोई किताब की समीक्षा कर रहा हूँ अपने ब्लॉग पर। पिछली बार तब, जब प्रेमचंद की पहली उपन्यास पढ़ी थी। अगर इतिहास में गोता लगाना चाहें तो यहाँ लगाइए।

आज बात करेंगे "दर दर गंगे" की। यह किताब मैंने खरीदी नहीं थी पर मुझे भेंट स्वरुप प्राप्त हुई। दरअसल फेसबुक पर गुरुप्रसाद जी ने एक अच्छी सोच के तहत यह प्रस्ताव रखा है कि अगर कोई भी अपनी ओर से किसी किताब की चंद प्रतियां लोगों को भेंट करना चाहे तो ज़रूर करें। इससे लोगों का पठन क्रम भी बंधा रहता है और मेरे जैसे लोग जो नई किताबों की तलाश में रहते हैं, को भी कई विकल्प मिलते हैं। तो इसी सोच के तहत अमित व्रज जी ने भी दर दर गंगे की ३ प्रतियां योग्य लोगों को देने का प्रस्ताव रखा और मैं किताब का नाम पढ़कर ही उत्कंठित हो उठा। जब आजकल गंगा सफाई को ले कर जोरों-शोरों से बातें हो रही हैं तो "दर दर गंगे" जैसे नाम को अपने समक्ष पढ़ना ही मुझे उत्सुक बना गया। मैंने झट अमित व्रज जी के किताब वाली प्रतियोगिता में हिस्सा ले लिया और सयोंगवश जीत भी गया। इसके लिए अमित जी का बहुत आभारी हूँ।

"दर दर गंगे" को दो लोगों ने मिलकर लिखा है और कई लोगों ने इस किताब को लिखने के लिए शोध किया है। अभय मिश्र और पंकज रामेन्दु इस पुस्तक के लेखक हैं और यह किताब २०१३ में पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित हुई थी।

गंगा की 'दशा, दुर्दशा और नक्शा' को आपके मानसिक पटल और फटी आँखों के सामने यह किताब खोलकर रख देगा। गंगा किनारे बसे कई छोटे-बड़े शहर गाँवों की एक माला को पिरोकर इस किताब को सजाया गया है और बड़ी करीनता से इसकी कहानी बुनी गयी है।

"हर हर गंगे" का हम मानवों की लघु-सहिष्णुता द्वारा उपहास होते हुए और उसको सामने रखते हुए यह किताब, "दर दर गंगे" आपको सोचने पर मजबूर करेगी। कभी आप सोचेंगे "लोग ऐसे भी हो सकते हैं?" तो कभी "लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं?" दरसल हम बड़े शहरों में बसे हुए लोगों के साथ यही दिक्कत है कि हम आसमान में रहते हैं और ज़मीन से डरते हैं क्योंकि ज़मीन पर सच आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहा होता है और सच के कड़वे गरल को गटकना हम बड़ी इमारतों के छोटे दिल वालों के लिए कठिन है। 'दर दर गंगे' उसी डर को आपके सामने रखने की एक सफल कोशिश है।

३ साल में अलग अलग खण्डों में किये गए इस गंगा सफ़र और खोज को ३० संभागों में इस किताब में प्रस्तुत किया गया है। उत्तर भारत में बहती माँ के इर्दगिर्द इसके बच्चो-नुमां शहरों और गाँवों को समेटते हुए वहाँ के स्थानीय संस्कृति, विरासत और गंगा से जुड़ी वहां की जिंदगियों को खंगाला गया है।
गंगोत्री, उत्तरकाशी, टिहरी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, नरौरा, गंगा नहर, कन्नौज, बिठुर, कानपुर, मनिकपुर, इलाहाबाद, विन्ध्याचल, वाराणसी, गाज़ीपुर, बक्सर, पटना, बख़्तियारपुर, मुंगेर, सुल्तानगंज, भागलपुर, कहलगांव, साहिबगंज, राजमहल, फरक्का, मायापुरी, कोलकाता और गंगासागर नगरों को इस सफ़र का हिस्सा बनाया गया है और हर नगर को गंगाजल में खंगाला गया है।

पढ़ते पढ़ते कभी आप दुखी हो जाएंगे तो कभी हतप्रभ। कभी आपकी आशा बंधेगी तो कभी निराशा। कभी आप सोचने लगेंगे तो कभी विस्मित हो बैठेंगे। यात्राएं रोचक होती हैं और उनका पढ़ना तो वैसे भी रोचक होता है पर जब वो यात्रा आपके इतिहास, संस्कृति और स्वयं से जुड़ी हों तो उस कहानी को आप और लगन से पढ़ते हैं और उसमें खुद को मथते हैं। 'दर दर गंगे' कभी आपको टिहरी बाँध की कहानी से मानव विकास के लिए चुकाया जाने वाला भावों का भुगतान करवाएगा तो कभी ऋषिकेश में पनपते नशेड़ियों और राजनीति से रूबरू मिलवाएगा। कभी आप कन्नौज के खुशबू कारोबार में फैली लोलुपता की गंध को गंगा की नज़रों से देखेंगे तो कभी कानपुर में जुतियों की मार खाते बेबस गंगा के सन्नाटे को सुनेंगे। आखिर कौन सी वो जगह है जहाँ हिन्दू जलाए नहीं गाड़े जाते हैं? आखिर गंगा पर चल रहा करोड़ों का जीवन कैसे खतरे में है? यह सब भी आपकी आँखों के सामने से इसी किताब के जरिये गुज़रेगा। बनारस की गलियों में खोयी गंगा और पटना में विकास की आड़ में छिपी मूक गंगा। भागलपुर में जलजन्तुओं को भी पनाह न दे पाती गंगा और राजमहल में टकराव के बीच बचती गंगा। फरक्का बाँध की बलि चढ़ी गंगा और कोलकाता की जद्दोजहद में बचती गंगा। यह सब आप 'दर दर गंगे' में जान सकेंगे।

वैसे तो पूरे सफ़र में कई उतार चढ़ाव हैं। हर जगह आपको अच्छे और बुरे लोग मिलते जाएंगे पर चूँकि सालों की लोलुपता, स्वार्थ और अनदेखी ने हमसे भी पुरानी इस नदी का जो भेदन किया है, उसे भरना इतना आसान नहीं होगा। हर जगह की अपनी मुश्किलें हैं और कई लोग अपनी अपनी जगहों से इसके लिए लगातार, निश्छल प्रयास भी कर रहे हैं। इनके बारे में भी पढ़कर आपको सुकून मिलेगा और प्रोत्साहन भी। कई परम्पराओं को जानकार आपको आश्चर्य होगा और आपके कौतुहल को और बल मिलेगा। ३ साल के अथक प्रयास से अभय और पंकज ने आपको अपनी माँ को जानने का २२१ पन्नों का तोहफा दिया है। इस तोहफे को ज़रूर अपनाइए और धीरे धीरे अपने ज्ञान, सोच और जीवन को और विस्तृत बनाइये। सच से सामना होना ज़रूरी है क्योंकि अगर आज हमारी आँखें नहीं खुली तो जल्द ही गंगा की आँखों के आगे अँधेरा छा जाएगा। चयन आपका।

जाते जाते बस एक बात और कहना चाहूँगा: गंगा के लिए शायद आप कोई विस्तृत काम न कर सकें पर एक छोटा सा कदम आज ज़रूर लें। प्लास्टिक की थैलियों का कम से कम इस्तेमाल करें। ये भी आधी-तिरछी हों गंगा में ही पहुँचती हैं। बाजार जाएं तो थैला ले कर जाएं। एक छोटा कदम, एक बड़ा बदलाव।

'दर दर गंगे' खरीदें: फ्लिप्कार्ट, अमेज़न, होमशॉप१८ से।

नोट: जल्दी ही "नीला स्कार्फ", "मसाला चाय" और "Terms & Conditions Apply" की भी समीक्षा करूँगा। पढ़ते रहिये!

शनिवार, 26 अप्रैल 2014

६ साल: ब्लॉग, लेखन, तजुर्बा

१५ अप्रैल २००८ की एक रात को एक कमरे में बैठा था। सोच रहा था कि आज इस काम को अंजाम दे ही दिया जाए। रात भर खोज करता रहा और इस नवीन तकनीक का इस्तेमाल करने को आरूढ़ हो गया। कुछ भी घिसा-पिटा लिखा और अपनी ऊंघती हुई फोटो भी डाल दी और सुबह करीब-करीब ६ बजे १६ अप्रैल २००८ को बिट्स पिलानी के कमरा क्रमांक २९० से ज़िन्दगी का पहला पोस्ट हो गया!

मुझे नहीं पता था कि एक छोटा सा पोस्ट मुझे हिन्दी ब्लॉगिंग में अपनी बात रखने और पहचान बनाने में सक्षम कर देगा। पर देख लीजिये, आज उस बात को ६ साल बीत गए हैं और यह अनवरत आज भी चल रहा है।

इन ६ सालों में ब्लॉगिंग से जुड़ी कई बातों को देखा, समझा, सीखा और सुना है। चंद बातें बताना चाहूँगा:
  1. ब्लॉगिंग का मकान बनाना बेहद आसान है। ब्लॉग को घर बनाना बेहद मुश्किल है।
  2. लगन, निष्ठा और जुझारूपन, ब्लॉगिंग के घर में इन सबकी निःसंदेह ज़रूरत है।
  3. प्रयोग करते रहें। अगर आप मेरी तरह ही नौसीखिए हैं तो प्रयोग करिए। तरह-तरह के लेख लिखिए और देखिये उसका आनंद!
  4. खूब पढ़ें। खूब सुनें। खूब सोचें। कम लिखें।
  5. टिप्पणियों के लिए ब्लॉग न करें। मोह माया है जी :)
  6. दूसरों के ब्लॉग्स पर अपने विचार छोड़ें। खुद लिखें और दूसरों को लिखने के लिए प्रोत्साहित करें। तभी भाषा की उम्र बढ़ेगी।
  7. ब्लॉग आपकी निजी जगह है। न ही किसी को इसमें व्यर्थ की सेंध लगाने दें और ना ही किसी और के निजी ब्लॉग पर ऐसा करें। व्यर्थ की राजनीति कम-स-कम यहाँ से दूर रखें।
  8. जब मन करे तब लिखें पर निरंतर लिखें। (मैंने हर मास कम-स-कम एक पोस्ट डालने का नियम बना रखा है)
अब मैं ब्लॉग-पोस्ट सिर्फ स्वयं के लिए लिखता हूँ। वैसे विशेष लेखन तो सभी के लिए करता हूँ। मुझे काफी देर से याद आया कि १६ अप्रैल को ब्लॉग का ६ठाँ वर्षगाँठ निकल गया। पर देर आये दुरुस्त आये। और यह भी अभी-अभी देखा कि यह ब्लॉग का १००वां पोस्ट है! :)

 

अंत में ज़िन्दगी और ब्लॉगिंग की स्थिरता पर २ पंक्तियाँ कहना चाहूँगा:
"मेरे सन्नाटे को यूँ कमज़ोर न समझना ऐ दोस्त,
किसी दिन सन्नाटे का बवंडर इस भ्रम को तहस-नहस कर देगा"

जाते जाते गुड़गाँव में गाया हुआ "एक चतुर नार" भी देख लीजिये!

रविवार, 3 नवंबर 2013

इस दिवाली तो बस..

इस दिवाली एक छोटी सी कृति उन तमाम लोगों के लिए, उन तमाम लोगों की तरफ से, जो यह दिवाली मेरी ही तरह अपने घर से दूर रहेंगे। मेरा तो यह मानना है कि आज के इस भगदड़ ज़िन्दगी में जब भी आप अपने घर-परिवार-दोस्तों के साथ होते हैं, तभी दीवाली-होली-ईद-रमज़ान मनती है।
पर जनाब यादों का सैलाब तो हर किसी को बहा ले जाता है फिर आप सब भी अपने अपने सैलाबों में बहते रहिये। जहाँ भी हों, खूब हर्षोल्लास से दीवाली मनाएँ! हार्दिक शुभकामनाएं!

याद है मुझे वो दिवाली से पहले की हलचल
जब पूरा घर इधर का उधर हुआ रहता था
कोई झाड़ू, तो कोई हथोड़ा लिए लगा हुआ था
जब चाय की चुस्कियों का होता था अल्पविराम
और कमर टूटने के बाद का आराम
अब
अगले दफे आऊंगा घर दिवाली पर
तब दोहराएँगे यही काम
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो शेरवानी जो पहनी थी पिछली दिवाली पर
दुरुस्त जो लगना था हमें इश की चौखट पर
क्या खूब सजाया था वो पूजन-मन
गाये थे हमने मन्त्र, आरती, भजन
इस दिवाली तो पजामे में ही बीतेगी शाम
अब
अगले दफे आऊंगा घर दिवाली पर
तब गाएंगे झूमेंगे हम सब तमाम
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो खुशबू बेसन के सिकने की
कभी-कभी हम भी दो-चार हाथ चला दिया करते थे
और वो दाल के हलवे का स्वाद मुँह में आज भी जमा है
जिसे खूब जम के हम सब खाया करते थे
इस दिवाली तो बाजारू मिठाइयों से ही चलेगा काम
अब
अगले दफे आऊंगा दिवाली पर
तब डट के लुटाएंगे पकवानों पर जान
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो बारूद की सुगंध आज भी
जब घंटों बजाते थे पटाखे चौक पर
कभी डर-डर के, कभी सर्र सर्र से
लगाते थे फुलझड़ी उस सुई सी नोक पर
इस दिवाली तो बस दर्शन का होगा काम
अब
अगले दफे आऊंगा दिवाली पर
तब लगाएंगे चिंगारी बेलगाम
इस दिवाली तो बस "राम राम"

याद है मुझे वो अगले दिन का मेल मिलाप
जब शहर का चक्कर लगाते थे दिन रात
कभी इस डगर, कभी उस के घर
हँसी ठहाके, सौ सौ बात
इस दिवाली तो खुद से मिलाएंगे तान
अब
अगले दफे आऊंगा दिवाली पर
तब गप्पों की खुलेगी खान
इस दिवाली तो बस "राम राम"
इस दिवाली तो बस "राम राम"

सोमवार, 30 सितंबर 2013

एक शहर देखा है मैंने - "दिल्ली"

सभी को बताते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि कुछ दिनों पहले एक 12 मिनट की फिल्म "दिल्ली" में संगीत देने का अवसर प्राप्त हुआ. आप में से कईयों को यह तो पता होगा कि मैं गाने का बहुत शौक़ीन हूँ (आपने मेरे गाने यहाँ सुने होंगे) और गाने के साथ-साथ मैं हारमोनियम/कीबोर्ड भी बजाता हूँ.
कॉलेज में कई गीत बनाए और गाए भी. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस फिल्म में भी संगीत दिया और पार्श्व में चल रहे कविता को भी मैंने ही लिखा है.

यह फिल्म दिल्ली के दूसरे पहलू को दर्शाने की कोशिश कर रहा है. एक पहलू तो वह जिसने दिल्ली को पिछले कुछ सालों में बहुत ही नकारात्मक दृष्टि प्रदान की है. इस फिल्म के ज़रिये हम दिल्ली में बदलाव की बात कर रहे हैं. बदलाव जो सड़कों पर उतरने से नहीं आता वरन खुद के भीतर से ही आता है. आम लोगों के सड़कों पर उतरने से आम आदमी ही परेशान होता है. आज तक इतने प्रदर्शनों से ना ही भ्रष्टाचार रुका और ना ही लड़कियों पर हो रहा अत्याचार.

इस फिल्म के जरिये यह गुहार लगायी गयी है कि बदलाव खुद से दूसरों तक फैलाओ और अपने घर को पहले स्वच्छ करो.

आशा है कि आपको यह प्रयास अच्छा लगेगा. विडियो देखें और अपनी राय ज़रूर दें.



पूरी कविता:
एक शहर देखा है मैंने
जहाँ सहर-ए-आफताब* से फिज़ा ज़र्द होती है (*सुबह की धूप)
जहाँ चाय के धुंए में फिक्रें सर्द होती हैं
जहाँ हर गली अपनी ही कहानी बिखेरता है
जहाँ हर इंसान अपनी किस्मत टटोलता है

एक शहर
जो गम और खुशी का मेल है
जो सही और गलत का खेल है
जो हर सोच को पनाह देता है
जो हर नज़र को निगाह देता है
जो हर मोड़ पे बदलता है
जो हर मौसम में मचलता है
जो कई मुकामों पे बहकता है
पर एक दूसरे से संभलता है
जो दर है हर मज़हब का
जो घर है शान-ओ-अज़मत* का (*शान और महानता)
जो यहाँ के लोगों की पहचान है
जो गैरों को मेहमान है

एक शहर
जो निशाना है जुर्म का
जिसको भय है खौफ का
पर
ये खेल है सिर्फ एक सोच का
एक सोच का जो इंसान को इंसान बनाती है
एक सोच का जो बदलाव लाती है
एक सोच जो साथ चलना सिखाती है
एक सोच जो निर्भय आवाज़ उठाती है
एक सोच जो खुद में विश्वास जगाती है
एक सोच जो शहर को घर बनाती है

एक शहर
जिसका आप बदल सकते हैं
अपनी सोच से, एक नयी सोच से
अब बदलाव दूर नहीं
अब दिल्ली दूर नहीं!

शुक्रवार, 10 मई 2013

ब्लॉगिंग के ५ साल

१६ अप्रैल २००८ को मैंने ज़िन्दगी में पहली बार ब्लॉग किया. आज उस लेख को ५ साल से ऊपर हो गए हैं. और ख़ुशी की बात यह है कि यह किसी पंचवर्षीय योजना के तहत ब्लॉगिंग की प्रथा नहीं रही है और फिर भी सफल रही है. हमारी सरकारों की तरह नहीं जो पंचवर्षीय योजनाएं बनाती तो तो हैं पर अंततः वह सब "पंचतत्व में विलीन योजनाएं" ही रह जाती हैं.

जब मेरे ब्लॉगिंग को तीन साल हुए थे तो मैंने तब तक की की हुई ब्लॉगिंग पर एक विस्तृत समीक्षा की थी और इसलिए मैं वह वापस नहीं करना चाहता. ५ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य पर मैं केवल अपने ब्लॉगिंग के सफ़र में आये उतार-चढ़ाव के बारे में लोगों को बताना चाहता हूँ जिससे और नए लोग जुड़ें और शिथिल पड़े ब्लॉग्स फिर से हलचल मचाएं.


बात स्कूल के समय कि है जब हिन्दी का स्तर बहुत नीचे गिर रहा था और बंगाल में तो इसका स्तर और भी नीचे है जहाँ लोग ठीक से हिन्दी बोल भी नहीं पाते हैं (हाँ जी, वहाँ लड़की भी बोलती है "मम्मी हम स्कूल जा रहा है" जिसपर मम्मी उत्तर देती है "ठीक है, शाम को हम तुम्हारे साथ मार्केट चलेगा, जल्दी आ जाना").
मुझे याद है कि हमारे हिन्दी के अध्यापक बड़े ही कड़े मिजाज़ के हुआ करते थे और उनके पेपर में ५०-६० नंबर आना बड़े गर्व की बात होती थी. उस समय मैं घर पर हिन्दी अपनी माँ से पढ़ा करता था और कक्षा ९ में एक एग्जाम के जब पेपर बंट रहे थे तो एक पेपर पर आ कर सर अटक गए और बोले - "ये लड़का कौन है? इसका पेपर चेक करके बहुत मज़ा आया. केवल एक मात्रा की गलती है दोनों पपेरों को मिला कर." फिर मैं पेपर लेने गया तो पूरी क्लास नी ताली मार दी. हम तो अति प्रसन्न हुए और घर जा कर बताया तो घर पर भी वाह-वाही. उसके बाद से तो जब भी हिन्दी सर मिलते तो उतने खडूस से ना लगते. अब ये तो होना ही था :)

फिर कई साल बीत गए और मेरा हिन्दी से नाता टूट सा ही गया. पढाई में इस कदर घुसे कि फार्मूला, स्ट्रक्चर और मोशन के अलावा मुझे न तो कुछ सुनाई देता और न कुछ दिखाई. पर वक़्त अपनी चाल अपनी चाल से ही चलता है और कॉलेज में आने के एक साल बाद मुझे लगा कि हिन्दी की डोर फिर से संभाली जाए. तो हम जुड़ गए कॉलेज के हिन्दी प्रेस क्लब के साथ. क्लब का काम कैंपस पे हो रही हलचल को लोगों तक न्यूज़लैटर के माध्यम से पहुँचाना था और हम भी लग गए इस काम में.

उस समय अंतरजाल भारत में अपने उत्थान पर था और हम भी उसकी गिरफ्त में आ रहे थे और तभी ब्लॉग-ब्लॉग का हल्ला सुना. कैंपस पे कई लोग ब्लॉग करते थे पर सब अंग्रेजी में. ऐसा नहीं था कि अंग्रेजी में हमारी रूचि नहीं थी पर हमें यही शिक्षा मिली थी कि जो अपनी मातृभाषा का आदर करता है, वह और सभी भाषा का उतना ही आदर कर सकता है पर इसका विपरीत नहीं होता. इस सीख को मैं आज भी उतना ही सच मानता हूँ और मेरा तो यह भी मानना है कि अगर आपकी मातृभाषा सदृढ़ है तो किसी और भाषा को सीखना बहुत आसान हो जाता है. लेकिन भारत के बदलते पहलुओं से मैं लोगों की खिचड़ी भाषा सुनकर काफी दुखी हूँ. वह ना तो इस छोर के रहे हैं और ना ही उस छोर के. ढिंढोर बहुत पीटते हैं मगर.

फिर एक रात मैंने ब्लॉग बनाया. यूँ ही कुछ लिखना था तो कुछ लिख दिया. कोई खबर न थी कि कौन पढ़ेगा, कौन टिपियाएगा. पर अगले दिन जब उठा तो देखा कि २-३ टिप्पणी मेरा स्वागत कर रही है और मैं बहुत खुश हुआ. सच कहूँ तो शुरू की २-३ सीढ़ियों को चढ़ने में जो लोग मदद करते हैं, वही सफलता के असली हक़दार होते हैं. आज अगर उस पोस्ट पे कोई टिप्पणी नहीं आती तो शायद मैं इस मुकाम पर कभी नहीं पहुँच पाता. फिर यह सिलसिला कायम रहा और उसी साल मैंने अपने क्लब के लिए भी एक ब्लॉग तैयार कर दिया जिससे हम तकनीक के माध्यम से कैंपस के बाहर भी अपनी पहुँच बढ़ा सकते थे. इसके अलावा मैं गानों का बहुत शौक़ीन हूँ और इसलिए मुझे गानों के बोल चाहिए होते थे पर वो सब अंग्रेजी में ही होते थे. कुछ इक्के-दुक्के साइट्स ही थे जो हिन्दी में बोल मुहैय्या करवाते थे. इसलिए मैंने अपना ही ब्लॉग "लफ़्ज़ों का खेल" शुरू कर दिया और कुछ ही महीनों में उसे भी ५ साल हो जाएँगे जिसपर करीब ९०० गाने हैं और ६.३ लाख से भी ज्यादा हिट्स आ चुके हैं.

ब्लॉगिंग चलता रहा है और लोगों के सुझावों और प्रोत्साहन से मैं लिखता रहा जिसे कई लोगों ने पसंद भी किया. मेरा उसूल सिर्फ एक था और एक है "ऐसा लिखो जो लोगों के बीच से उठी हो और लोगों के लिए हो". मेरा मकसद सुसज्जित और विभूषक हिन्दी लिखना नहीं है. मेरा मकसद हिन्दी के उस पतन को रोकना और फिर उसे उत्थान की ओर ले जाना ही रहा है. मैं आम लोगों के लिए लिखता हूँ और आम भाषा में लिखता हूँ ताकि जो लोग इस भाषा से दूरी बना चुके हैं वह फिर से इसको अपनाएं क्योंकि जो देश अपने भाषा की कदर नहीं कर सकता, वह देश सिर्फ विनाश की ओर ही मुंह करे खड़ा है. आदर नहीं तो कम से कम निरादर तो ना करें! कई युवाओं को जब गर्व के साथ बोलते हुए देखता हूँ कि मुझसे तो हिन्दी पढ़ी-लिखी नहीं जाती तो मुझे वही अनुभव होता है जब उनके सामने कोई कहे कि "मुझे तो अंग्रेजी पढनी-लिखनी नहीं आती"

खैर, ३ ब्लॉग संभालते संभालते अब यह एहसास हो चुका है कि ब्लॉगिंग आसान नहीं है. कुछ समय आप अपनी ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि लेखन के प्रेरणा स्रोत ही गायब हो जाते हैं. अगर समय भी हो तो आप कुछ ऐसा लिख ही नहीं पाते जो रुचिकर हो. और कभी इसके ठीक विपरीत होता है. आपके पास सोच का भंडारा भरा पड़ा होता है पर उसे खाली करने का समय नहीं!

मेरे ख्याल से मेरे साथ कैंपस पे जितने भी लोगों ने ब्लॉगिंग शुरू की थी, आज सब ठप्प पड़े हैं.
कारण है - काफी अनियमित ब्लॉगिंग और लेखों की गुणवत्ता में कमी.
अगर आपका ब्लॉग है जिसका आप पुनर्जन्म चाहते हैं या फिर आप ब्लॉगिंग शुरू करना चाहते हैं तो यह दो सबसे अहम् पहलू हैं. अच्छा लिखिए, अच्छा पढ़िए और निरंतर लिखिए. मैंने खुद के लिए एक नियम यह बना लिया है कि हर महीने एक लेख तो लिखूंगा ही. इसलिए नज़रें और कान हमेशा खुली रहती हैं कि किस विषय पर लिखा जाए. पर कुछ नियमबद्ध काम करने से फायदा बहुत होता है. बड़े बड़े गुणवान सिर्फ इसीलिए मात खा जाते हैं क्योंकि चीज़ों को लेकर उनमें सहनशक्ति नहीं होती. वह बड़े जल्दी निराश हो जाते है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि जो पोस्ट मुझे बहुत पसंद आई हो, उसको काफी कम लोगों ने पढ़ा है और काफी कम टिप्पणियाँ आई हैं पर इसका मतलब यह नहीं है कि अगला पोस्ट नहीं आया हो. अगर ऐसी दुविधा में पड़ जाएं तो यही सोचें कि मैं अपने लिए ही लिख रहा हूँ, मैं अपने विचारों को लेखन की दिशा दे रहा हूँ, बस!

एक और बात जो मैं साझा करना चाहूँगा, वो ये कि नए प्रयोग करने से घबराएं नहीं. मैंने करीब करीब हर रस पर लिखा है जिनमें से कई बहुत ही सामान्य हैं पर नए अभ्यास करके चित को बड़ी शान्ति मिलती है. बीच में लघु कथाएं भी लिखनी शुरू कि जो काफी सफल भी रहे और आगे भी मैं उनपर लिखता रहूँगा.

पहले मैं समझता था कि टिप्पणी करना भी बहुत ज़रूरी है जिससे लोग भी आपके ब्लॉग पर टिप्पणी करें. पहले समय और भाव दोनों थे तो मैं भी काफी ब्लॉग्स पढता था और टिप्पणी भी करता था. पिछले कुछ महीनों में यह कम हुआ है जिससे मैं खुद परेशान हूँ. पर मैं यह नहीं मानता कि टिप्पणी करना अनिवार्य ही है. अगर आप अच्छा लिखेंगे तो लोग खुद खोजकर आपके ब्लॉग को पढेंगे. अच्छी लेखनी और टिप्पणी का कोई सम्बन्ध नहीं है. इसलिए टिप्पणीमुक्त हो कर लिखें!

अब बात रही ब्लॉगिंग के जीवन में फायदे कि तो मैं ब्लॉगिंग के माध्यम से कई विरष्ठ लोगों से मिला हूँ और ब्लॉग के माध्यम से ही मेरी कवितायेँ "अनुगूंज" (संपादक: श्रीमती रश्मि प्रभा) में भी छपी. इसके अलावा कई बार जनसत्ता में मेरे आलेख छपे (संतोष त्रिवेदी जी :)). पर इन सब चीज़ों के लिए मैंने कोई कोशिश नहीं की. बस अपनी धुन में लिखता गया और लोगों को पसंद आया तो उन्होंने खुद पूछ लिया छपवाने के लिए.

ब्लॉगिंग का यह ५ साल का सफ़र काफी खुशनुमा रहा है और उम्मीद यही है कि लिखता रहूँ, मिलता रहूँ, पढता रहूँ, जब तक है जान, जब तक है जान :)

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

सरल या क्लिष्ट हिन्दी

तो हमारी एक दोस्त से बहस छिड़ गयी कि हिन्दी लिखने वालों को सरल लिखना चाहिए या हिन्दी की गुणवत्ता बरकरार रखते हुए क्लिष्ट?
उसे मेरी बहुत ही सरल और सुस्पष्ट हिन्दी लिखने पर आपत्ति थी ।

मैंने कहा कि - "देखो, मैं कोई भी लेख, लोगों के लिए लिखता हूँ । अगर लेख की कठिनता के कारण लोग कुछ समझ ही न पाएं तो फिर मेरे लिखने का क्या फायदा?"

उसने कहा - "अगर यही सोचकर सब लिखने लगें तो हिन्दी के समृद्ध इतिहास को कौन बरकरार रखेगा?"

मैंने कहा - "अगर बरकरार रखने के चक्कर में हिन्दी पढ़ने वाले ही गायब हो जाएं तो उसका ज़िम्मेदार कौन होगा? मेरा कहना बस इतना है कि जहाँ आज दुनिया में हिन्दी से कतराते लोगों की संख्या महंगाई के साथ हाथ में हाथ मिलाकर बढ़ रही है, वहां ज़रूरत ऐसे हिन्दी की भी है जो लोगों को तुरंत समझ में आये । जहाँ लोगों के पास अपने कमाए हुए रुपयों को व्यय करने का वक़्त नहीं है वहां क्लिष्ट हिन्दी समझ कर पढ़ने का समय कहाँ बचता है? अगर हिन्दी में रूचि ही ख़त्म हो जाए तो वो सारे जवाहराती हिन्दी लेखों को स्थान कूड़े में होगा जिसके जिम्मेवार हिन्दी कट्टरवादी होंगे । तुम जैसे लोग हिन्दी के स्तर को बरकरार रख सकते हैं और हम जैसे नौसिखिये उन लोगों का रुझान फिर से हिन्दी की तरफ कर सकते हैं जिन्हें हिन्दी से उदासीनता हो गयी है । हाथ से हाथ मिलाकर चलेंगे तो हिन्दी का उद्धार तय है नहीं तो कट्टरपंथियों ने दुनिया का भला नहीं किया है ।"

बात उसके समझ में आई या नहीं, नहीं पता । पर आपके क्या विचार हैं "सरल या क्लिष्ट हिन्दी" पर । ज़रूर रखें । जय राम जी की!

बुधवार, 14 सितंबर 2011

तेरे-मेरे बीच

हिन्दी दिवस फिर से आया है आज.. मैंने सोचा कि इस हिन्दी दिवस पे कुछ नया किया जाए.. जो पहले कभी नहीं किया हो... अपने पोस्ट "तीन साल ब्लॉगिंग के" में मैंने लिखा था कि श्रृंगार रस को छोड़कर हर रस का आनंद लिया है मैंने अपनी लेखनी में.. तो इस बार हिन्दी दिवस पर कुछ नया करने की फितरत में अपनी कविता में श्रृंगार का श्रृंगार कर रहा हूँ.. मैं इस रस में नौसिखिया हूँ.. सभी ज्ञानी जनों से माफ़ी और राय दोनों की अपेक्षा है.. आपकी हर राय उत्साहवर्धन का काम करेंगी.. जय हो!

वो लरज़ते हुए होंठों का धीमे से ऊपर उठ जाना
और मेरा उस इशारे को बेबाक समझ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


वो भीड़ के शोर में सब कुछ गुम जाना
तेरा, मेरी आँखों से एक किस्सा पढ़ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


वो कई दिनों की चुप्पी का सध जाना
उस खामोशी में से संगीत निकालना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा मेरे हाथों को धीरे से छोड़ जाना
उस छोड़ने में तेरी रूठने की अदा पढ़ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन आँखों को धीमे से बंद कर लेना
उसमें तेरी हामी को पढ़ लेना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा मेरे सर को धीमे से चूम लेना
उस स्पर्श में तेरे प्यार को जी जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन आखों में शरारत का भर आना
उस शरारत में तेरा बचपन देख जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन सुर्ख आँखों से मोतियाँ बिखेरना
मेरा उन मोतियों को सहेज के समेटना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...

और जाते-जाते एक ख़ुशी की बात... मेरी और मेरी माँ की कुछ कविताएँ "अनुगूंज" में प्रकाशित हुई हैं जिसकी संपादिका "श्रीमती रश्मि प्रभा जी" हैं... उनको विशेष आभार और बाकी सभी लोगों का जिसका इस पुस्तक को प्रकाशित करने में सहयोग रहा...
यह मेरे, मेरे परिवार और मेरे दोस्तों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात रही जिसका आप सब भी हिस्सा हैं..

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कन्नू की “गाय” ते माँ का “Cow”

काफी महीनों बाद लिख रहा हूँ..कारण २ हैं.. पहला अनुपलब्धि अंतरजाल की और दूसरा अनुपलब्धि अच्छे विषय की...
पर आज दोनों ही बाधाएं दूर हो गयी हैं और इसलिए लिख रहा हूँ..
यूँ तो मैं लघु कथाएं लिखने लगा था पर आज एक लघु कथा ऐसी लिखूंगा जो कि मनगढंत नहीं है अपितु मेरे ही सामने घटा एक वाकया है..

शाम का समय था और मैं और मेरे दोस्त खाना खाने पास ही में एक आंटी के पास गए हुए थे | वहाँ खाना खाते वक्त आंटी का नाती अपनी माँ के साथ वहीँ आया हुआ था |
हम उससे बात करने लगे और पूछने लगे कि वो कौन से स्कूल में जाता है और क्या-क्या पढ़ता है? उसका नाम कन्नू है और बहुत ही नटखट और होशियार है | वो खुद ही हमें बताने लगा कि कौन सा जानवर कैसी-कैसी आवाजें निकालता है | उसने हमें बन्दर, शेर और बिल्ली की आवाज़ निकाल कर दिखाई और हमें भी बड़ा अच्छा लगा | फिर हम उससे खुद जानवरों के बारे में पूछने लगे |
हमने उससे पूछा कि अच्छा बताओ “मौं-मौं (रँभाना)” कौन करता है?
तो उसने तुरंत ही कहा – “गाय”
हमने कहा बहुत बढ़िया, कि इतने में ही उसकी माँ रसोईघर में से निकली और डांटते हुए कहाँ – “कन्नू कितनी बार बोला है “गाय” नहीं “काओ (cow)” कहा करो |”

उसी समय मैं समझ गया कि भारत आगे क्यों नहीं बढ़ रहा है | जहाँ माँ अपने बच्चे को बचपन से अमरीका और इंग्लैंड के लिए खाना, पीना, बोलना और रहना सिखाती है वहाँ वो बच्चा भारत के लिए क्या सोचेगा और क्या करेगा? गलती युवाओं में नहीं पर उनको पालने वाले उनके विदेशी माता-पिता में है जो पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में ही रहना पसंद करते हैं | यह तो मैं एक मध्यम-श्रेणी के परिवार का किस्सा सुना रहा हूँ तो उच्च-श्रेणी के परिवार जिनसे आज तक कोई उम्मीद ही न की गयी हो, से क्या आशा की जा रकती है?

देश वही आगे बढ़ा है जिसने अपनी भाषा को प्राथमिकता दी है | चाहे वो अमेरिका हो या फिर चीन | इस तरह की घटनाएं प्रोत्साहित करने वाली नहीं है एक उज्जवल और समृद्ध भारत की | पर कोशिश तो जारी रखनी पड़ेगी |

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

हिन्दी - ठंडा.. पर अंग्रेजी - कूल !!

आज यह लेख पढ़ रहा था.. तो सोचा कि चूँकि मैंने अपने पिछले पोस्ट में अब क्रियाशील होने की बात कही है तो उसे पूरा क्यों ना करुँ भला?

सबसे पहले ये बता दूं पिछले पोस्ट में मुझे यह टिप्पणी मिली.. उसका उत्तर दे देता हूँ..

जनाब 1 बात मेरे अन्दर घर कर गयी है.. जिसे मैं उतना नहीं मानता था पर अब मेरा भी इस पर सत-प्रतिशत विश्वास हो गया है | आपने कहा कि लड़कियों की बातें अगर मैं सुन लेता तो मुझे पोस्ट में लिखने के लिए और भी विषय मिल जाते |
बुजुर्ग जो भी कहते हैं वो उनके बुजुर्गियत का निचोड़ होता है और उन्होंने सच ही कहा है कि औरतों को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है (ये तो डॉन जैसा डायलॉग है :) ).. और यह बात को मैं गाँठ बांधकर चलता हूँ..
अगर आप कहते हैं कि उनके दुःख को समझकर मैं कुछ लिखूं तो मुझे तो बख्श ही दें.. उनके दुःख तो ऐसे बदलते हैं जैसे कोई लड़का अपनी गर्लफ्रेंड बदलता हो (इस बात पर आपको विश्वास करना ही होगा.. बड़े शहरों का तो खेल है ये) !! आज वो इसलिए दुखी हैं.. और कल किसी और के लिये.. बेचारा दुःख भी उनसे दुखी हो चुका है..
तो मैं बेहद खुश हूँ कि मैंने उनकी दुःख भरी बातें नहीं सुनी.. और ना ही लोगों को दुखी किया (अगर सुनकर पोस्ट कर देता तो कितने लोगों की बददुआएं लगती.. सोचिये !!).. तो यही मेरा उत्तर है..

अब इस पोस्ट के शीर्षक की बातें करूँ?
हिन्दी हमारी मातृभाषा होते हुए भी.. पता नहीं अन्दर 1 गाँठ सी पड़ी है.. लोगों को ये इतनी गिरी हुई भाषा क्यों लगती है? अंग्रेजी में कहें तो - "सो मिडिल क्लास टाइप".. जब तक जबान पे अंग्रेजी की खिट-पिट शुरू नहीं होती तो लोगों को ऐसा लगता है मानों कोई गंवार बक-बक कर रहा था..

आखिर ऐसी क्या बात है कि हिन्दी में बात करना हमारे लिए "कूल" नहीं होता है? ठीक है माना कि हम शुद्ध हिन्दी नहीं बोल सकते (अगर ऐसा हुआ तो भारत की आधी जनता आत्महत्या कर सकती हैं यह मेरा दावा है !!)..पर हिन्दी की दुर्गति (बोले तो वाट्ट) क्यों कर रहे हो महानुभावों? ऊपर वाले लिंक में जनाब ने कहा कि हमें कट्टर नहीं होना चाहिए.. हम ट्रेन को लौहपथगामी नहीं कह सकते.. ठीक है माना.. पर ऐसा कहने को कौन बोल रहा है? हम कट्टर तो नहीं है पर कम-स-कम साफ़ हिन्दी तो बोलो | हर 2 शब्दों के बाद जो अंग्रेजी अपना चेहरा सामने ले आती है उसका कारण यही है कि हम कट्टर नहीं हैं.. वरना पता चला कि हम तालिबानियों की तरह हो गए और 1 अंग्रेजी शब्द निकलते ही काम तमाम ! हा.. ऐसा तो हम कह ही नहीं रहे हैं |

भारत में मैं दावे के साथ कह सकता हूँ की आधी जनता को हिन्दी आती ही नहीं है.. और क-ख-ग वाली अक्षरावाली तो कम से कम 90% लोग पूरा सही बोल ही नहीं पाएँगे (और इसपर शर्म की बजाय गर्व से कहेंगे - "दैट इज सो मिडिल क्लास टाइप").. और अभी पूछो - "बेटा A-B-C बोलो.." तो वो दो साल का छुटकू सा बच्चा फर्र से बोल लेगा..
गलती उन लोगों की नहीं है जो हिन्दी बोलते, लिखते हैं और पूजते हैं.. गलती तो हम बच्चे के बचपन से ही करते हैं..

मैं तो कहता हूँ की A-B-C सिखाने से पहले उसे क-ख-ग सिखाया जाय.. देखें की वो आगे चलकर कम-स-कम साफ़ हिन्दी बोल पाता है कि नहीं..

हम शुरू से ही उस मासूम के आस-पास ऐसा परिवेश तैयार कर देते हैं जिससे उसमें हिन्दी के प्रति हीन भावना जागृत हो उठती है.. मैं जिन सामाजिक नेट्वर्किंग साइट्स में शामिल हूँ, उनमें से शायद 1 या 2 लोग ही हैं जिन्होंने हिन्दी उपन्यास पढ़े हों.. अंग्रेजी पढ़ना कोई बुरी बात नहीं है.. पर हिन्दी को भी उतनी ही प्राथमिकता देने की ज़रूरत है..

अंग्रेजी स्कूलों में अंग्रेजी पहली भाषा होती है विषय के तौर पर और हिन्दी दूसरी भाषा है.. क्या यह आश्चर्य और दुःख की बात नहीं है कि जिस राष्ट्र की मातृभाषा हिन्दी है, उसी राष्ट्र के 50 से ज्यादा प्रतिशत स्कूलों की पहली भाषा हिन्दी नहीं है? !
सरकारी स्कूलों के बारे में मुझे सही-सही मालूमात नहीं है पर वही भेड़-चाल हर जगह अपने पैर घर कर चुकी है.. वहां भी हिन्दी से ज्यादा अंग्रेजी का ही बोलबाला है..

*इस पोस्ट में 1 ऐसी बात है जो मैं अंत में आप सबके सामने रखूँगा और आपको वह पढ़कर बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि सच आश्चर्यचकित करने के लिए नहीं वरन आँखें खोलने के लिए होती है..

साथ ही साथ दुःख की बात यह है कि बिट्स पिलानी जैसे श्रेष्ठतम कॉलेज में भी हिन्दी लिखने वाले बहुत कम है.. और जहाँ तक मेरी जानकारी है, कैम्पस के जिन्दा(जो कम-स-कम महीने में एक बार अद्यतन होते हैं) हिन्दी ब्लॉग में केवल 1 या 2 लोगों का ही नाम आ सकता है..

तो यह तो हिन्दी का दुर्भाग्य ही है कि राष्ट्र भाषा होते हुए भी सड़कों के आवारा पशुओं की भाँती उसे देखा, सुना जाता है..
पर इसमें उसकी भी क्या गलती है.. गलती तो हम जैसे "सो कॉल्ड" यूथ की है जिन्हें हिन्दी बोलना/लिखना ठंडा पर अंग्रेजी बोलना/लिखना उतना ही कूल लगता है !!

तो ना ही हम कभी कट्टर रहे और न ही कभी रहेंगे और शायद यही 1 बिंदु है जो हिन्दी की दुर्गति को कभी रोक नहीं पाएगा.. अब फैसला तो आप पर है.. क्या कट्टर हो कर हिन्दी को बचाएं? या नर्म रह कर हिंगलिश को बढ़ावा दें?
तो आप इस कट्टर प्रश्न पर मंथन करते रहिये और हम इस विराट सागर में एक बूँद पानी का योगदान ऐसे छोटे-छोटे लेखों से करते रहेंगे..

जाते जाते एक किस्सा सुनाना चाहता हूँ :
आशुतोष राणा जो कि हिन्दी फिल्म जगत के जाने-माने कलाकार हैं, 1 बार किसी विदेशी से भारत में मिले..
विदेशी : How are you?
आशुतोषजी : मैं बढ़िया हूँ.. और आप?
(किसी ने अंग्रेजी में बताया कि वो क्या कह रहे हैं..)
इस पर उस विदेशी को बड़ी हैरत हुई की इन्होने हिन्दी में जवाब क्यों दिया...पर कुछ पूछा नहीं..

कुछ महीनों बाद आशुतोषजी उसी विदेशी के शहर पहुंचे..
इस बार :
विदेशी : आप कैसे हैं? (उसने हिन्दी ख़ास आशुतोषजी के लिए सीखी थी !!)
आशुतोषजी : I am doing fine. What about you? क्यों अचंभित हुए कि मैंने इस बार भी उल्टे भाषा में जवाब क्यों दिया? बताता हूँ : पिछली बार जिस तरह आपने अपनी भाषा का सम्मान किया, उसी प्रकार मैंने भी अपनी भाषा का सम्मान किया और इस बार जिस तरह आपने मेरी भाषा का सम्मान किया, ठीक उसी तरह मैं भी आपकी भाषा का सम्मान करता हूँ..

तो ऐसे लोग भी हैं जो कट्टर न होते हुए भी लोगों को जीत लेते हैं... ऐसे लोगों को हमेशा नमन..

हाल फिलहाल प्रेमचंदजी की गोदान और गबन पढ़ी.. अन्दर से हिल गया बिलकुल...
वो आदमी को अन्दर से प्रस्तुत करते हैं और ऐसा लगता है मानों पूरे समय कोई फिल्म चल रही हो ठीक आपके सामने..
ऐसे लेखक को सौ बार नमन है..

*इस पोस्ट की ख़ास बात : मैंने सभी अंकों को अंग्रेजी में ही रख छोडा है क्योंकि मुझे पूर्ण भरोसा है कि १,२,3,४,५,६,७,८,९.. यह भी भारतीय जनता के लिए याद रख पाना समुद्र में से मोती ढूँढ निकालने के बराबर का काम है.. :)

इस पोस्ट का गाना पढ़ते जाइये :
ब्रेथलेस (बेदम.. अगर मैं कट्टर हो जाऊं तो :) )
शंकर महादेवन का एक बेहतरीन गाना..

आदाब.. खुदा हाफिज़..

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

जय हिन्दी हो !!


तो जनाब हिन्दी दिवस तो निकल गया पर हम वो थोड़े ही ना हैं जो हिन्दी केवल हिन्दी दिवस वाले दिन ही पढ़ते, लिखते या बोलते हैं... अब जब भारतीय फिरंगियों को (जिन्हें हिन्दी आती ही नहीं) रत्ती भर इस बात का गम नहीं है कि अपनी मातृभाषा ही नहीं आती है तो हम भी कम नहीं... हमें भी उतना ही गर्व है कि हिन्दी शान से बोलते, लिखते और पढ़ते भी हैं..
अब संयोग कि बात ही देख लीजिये.. कल हिन्दी दिवस गया और मैं अपनी ज़िन्दगी का पहला हिन्दी उपन्यास पढ़ रहा हूँ.. बस यह समझ लीजिये की एक-दो दिन में ख़तम ही होने वाली है..
आपको अचरज हो रहा होगा कि बालक पिछले साल भर से हिन्दी ब्लॉगिंग कर रहा है और आज तक इसने एक भी हिन्दी उपन्यास के पन्ने न झाड़े? अब इसे आप मेरे किस्मत के खाते में डालें या फिर मेरे आलस पर थोपें पर सत्य वचन तो यही है कि यह उपन्यास मेरी पहली है और मैं इसका ऐसा कायल हो गया हूँ कि अब तो हर हफ्ते एक न एक नया उपन्यास पढूं... पर देखिये कितना संभव हो पाता है..

रंगभूमि
प्रेमचंद जैसे महान लेखक और हिन्दी के उपासक की जितनी प्रशंसा की जाय कम ही है.. मैंने अपने स्कूल के समय एक-दो कहानियां ज़रूर पढ़ी थीं और लोगों के मुख से इनके बारे में बहुत सुना भी था पर यह न पता था कि इनकी एक किताब मुझे इनका दीवाना बना देंगी..
रंगभूमि जीवन के हर वर्ग को अपनी आगोश में लेता है.. वह हर तरह के चेहरे को बेनकाब करता है.. वह हर तरह के भाव को अपने में समेटे हुए है..

जहां एक अँधा अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ रहा है वहीं पर इज्ज़तदारों की नींद एक साथ ऐसी उडी हुई है मानो एक बालक किसी गबरू जवान को उठा कर पटक दे.. सूरदास अँधा है पर निर्बल नहीं.. वह शरीर और मन दोनों से पूरे गाँव का दिल जीते हुए है और शायद यह जीत अंत तक बनी रहेगी (अब मैंने भी पूरा पढ़ा नहीं है और आपको बता दूं तो रोमांच कहाँ रह जाएगा?)..

वहीँ दूसरी ओर गहन चिंतन और मनन करने वाले कुछ नौजवानों की अपनी अलग ही ज़िन्दगी चल रही है जिसे वो अपनी विस्तृत और संकीर्ण सोच से इसे खेल रहे हैं.. यहाँ मौत भी है और ज़िन्दगी भी.. यहाँ प्रेम भी है और नफरत भी.. यहाँ सम्मान भी है और तिरस्कार भी..
इनकी कहानी हम जैसे युवकों/युवतियों से ज्यादा जुड़ी हुई है.. इसलिए नहीं कि हमारे और इनके राह एक हैं पर इसलिए कि ये जैसा सोचते हैं वैसे ही हम भी करते हैं..

तो रंगभूमि मेरे मन को इस तरह रंग चूका है कि छूटे ना छूटे.. जहाँ ज़िन्दगी के हर रंग को प्रेमचंद ने अपनी कलम से इतने गहरे और सुव्यवस्थित तरीके से सराबोर किया है.. मानिए मेरी.. अगर आप भी न रंगे तो यह पोस्ट ही मिथ्या समझियेगा..

जितना प्रेमचंद के बारे में सुना था आज बोल भी रहा हूँ.. और आशा करता हूँ कि उनके द्वारा रचित और भी लेख/उपन्यास मेरी आँखों तले गुजरेंगे और मैं उसका रसपान करने में सफल रहूँगा..

यह हिन्दी दिवस प्रेमचंद को समर्पित और हर उस रचना को, जिसने हिन्दी को और भी सशक्त और उच्च भाषा का ओहदा प्रदान किया है..

जय हिन्दी हो !!
जय हिन्दी ब्लॉगर्स की !!