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सोमवार, 30 सितंबर 2013

एक शहर देखा है मैंने - "दिल्ली"

सभी को बताते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि कुछ दिनों पहले एक 12 मिनट की फिल्म "दिल्ली" में संगीत देने का अवसर प्राप्त हुआ. आप में से कईयों को यह तो पता होगा कि मैं गाने का बहुत शौक़ीन हूँ (आपने मेरे गाने यहाँ सुने होंगे) और गाने के साथ-साथ मैं हारमोनियम/कीबोर्ड भी बजाता हूँ.
कॉलेज में कई गीत बनाए और गाए भी. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस फिल्म में भी संगीत दिया और पार्श्व में चल रहे कविता को भी मैंने ही लिखा है.

यह फिल्म दिल्ली के दूसरे पहलू को दर्शाने की कोशिश कर रहा है. एक पहलू तो वह जिसने दिल्ली को पिछले कुछ सालों में बहुत ही नकारात्मक दृष्टि प्रदान की है. इस फिल्म के ज़रिये हम दिल्ली में बदलाव की बात कर रहे हैं. बदलाव जो सड़कों पर उतरने से नहीं आता वरन खुद के भीतर से ही आता है. आम लोगों के सड़कों पर उतरने से आम आदमी ही परेशान होता है. आज तक इतने प्रदर्शनों से ना ही भ्रष्टाचार रुका और ना ही लड़कियों पर हो रहा अत्याचार.

इस फिल्म के जरिये यह गुहार लगायी गयी है कि बदलाव खुद से दूसरों तक फैलाओ और अपने घर को पहले स्वच्छ करो.

आशा है कि आपको यह प्रयास अच्छा लगेगा. विडियो देखें और अपनी राय ज़रूर दें.



पूरी कविता:
एक शहर देखा है मैंने
जहाँ सहर-ए-आफताब* से फिज़ा ज़र्द होती है (*सुबह की धूप)
जहाँ चाय के धुंए में फिक्रें सर्द होती हैं
जहाँ हर गली अपनी ही कहानी बिखेरता है
जहाँ हर इंसान अपनी किस्मत टटोलता है

एक शहर
जो गम और खुशी का मेल है
जो सही और गलत का खेल है
जो हर सोच को पनाह देता है
जो हर नज़र को निगाह देता है
जो हर मोड़ पे बदलता है
जो हर मौसम में मचलता है
जो कई मुकामों पे बहकता है
पर एक दूसरे से संभलता है
जो दर है हर मज़हब का
जो घर है शान-ओ-अज़मत* का (*शान और महानता)
जो यहाँ के लोगों की पहचान है
जो गैरों को मेहमान है

एक शहर
जो निशाना है जुर्म का
जिसको भय है खौफ का
पर
ये खेल है सिर्फ एक सोच का
एक सोच का जो इंसान को इंसान बनाती है
एक सोच का जो बदलाव लाती है
एक सोच जो साथ चलना सिखाती है
एक सोच जो निर्भय आवाज़ उठाती है
एक सोच जो खुद में विश्वास जगाती है
एक सोच जो शहर को घर बनाती है

एक शहर
जिसका आप बदल सकते हैं
अपनी सोच से, एक नयी सोच से
अब बदलाव दूर नहीं
अब दिल्ली दूर नहीं!

मंगलवार, 11 जून 2013

संगीत बन जाओ तुम!

कब तक इस नकली हवा की पनाह में घुटोगे तुम?
आओ, सरसराती हवा में सुरों को पकड़ो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक ट्रैफिक की ची-पों में झल्लाओगे तुम?
आओ, उस सुदूर झील की लहरों को सुनो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक अपनी साँसों को रुपयों में बेचोगे तुम?
आओ, आज़ाद साँसों की ख्वाहिश सुनो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक कानाफूसी से कानों को भर्राओगे तुम?
आओ, चंद पल शान्ति की मुरली बजाओ तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक उस चीखते डब्बे को सहोगे तुम?
आओ, बच्चों की हंसी में उस लय को पकड़ो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक इन सिक्कों की खनखनाहट तले दबोगे तुम?
आओ, घुँघरू की आहट को पहचानो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक टूटे हुए दिल के टुकड़ों का मातम बनाओगे तुम?
आओ, उस एक दिल की धड़कन में समां लो तुम
संगीत बन जाओ तुम!

कब तक जिन्दगी की ज़ंजीर में घिसोगे तुम?
आओ, अपनी आज़ादी में गाओ तुम
संगीत बन जाओ तुम!
संगीत बन जाओ तुम!