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सोमवार, 29 दिसंबर 2014

कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ (समीक्षा)

दिनेश गुप्ता 'दिन' जी का मेल मिला कि उनकी नयी कविता संग्रह, "कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ" जल्द ही पाठकों के समक्ष हाज़िर हो रही है और मैं भी इस संग्रह के बारे में अपने विचार सभी तक पहुंचाऊं। जल्द ही यह पुस्तक मेरे हाथों में थी और श्रृंगार से भरी इस रसभरी संग्रह का हमने पान किया और आपके समक्ष इसका स्वाद ले कर हाज़िर हैं।
सबसे पहले आपको बता दूं कि दिनेश गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेर इंजिनियर हैं पर लिखने के शौक और जुनून ने इनको अपनी तीसरी किताब प्रकाशित करने पर मजबूर कर दिया है। इससे पहले 'मेरी आँखों में मोहब्बत के मंज़र हैं' और 'जो कुछ भी था दरमियाँ' भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इस युवा कवि की एक प्रशंसनीय कोशिश है इनकी यह तीसरी किताब, 'कैसे चंद लफ़्ज़ों में सारा प्यार लिखूँ'।

'मेरी आँखों में जिसका अक्स है, मुझसे कितना दूर वो शख्स है'
इन सुन्दर पंक्तियों से दिल का दर्द बयां कर देते हैं 'दिन' और अपने अन्दर छुपे दर्द को शब्दों की लहरों में बहा देते हैं।

आज के दौर के प्यार को कुछ इन शब्दों में बयां कर रहे हैं 'दिन':
उड़ानें इतनी ऊँची हो गयी कि ज़मीं से नाता टूट गया,
इतनी बुलंदी पर आ पहुँचे कि हर अपना छूट गया,
मुहब्बत किताबों में अच्छी थी, जो आज़माने की भूल कर बैठे,
तिनका-तिनका, ज़र्रा-ज़र्रा, कतरा-कतरा लुट गया।।
किस तरह आज का युवा अपने रिश्तों और अपनी पेशेवर तरक्की के दरमियाँ जूझ रहा है, वह इन पंक्तियों से झलक जाती है। जहाँ एक ओर हम आज के युवा का ज़मीन से ना जुड़े होने का झंडा फहराते हैं वहीँ ऐसे युवा लेखक आज के दौर में भी क्रियात्मक और भावनात्मक होने के प्रमाण दे रहे हैं अपनी लेखनी से, अपने शब्दों से।
कजरे की धार लिखूँ या फूलों वाला हार लिखूँ मैं,
लबों की शोखी लिखूँ मैं या आँखों का इकरार लिखूँ मैं,
इस रीते तन-मन से, अधूरे-अकेले खाली पन से,
कैसे नवयौवन-मधुवन का सारा श्रृंगार लिखूँ मैं।।
इन सुन्दर शब्दों की लड़ी पिरोकर श्रृंगार रस को और सुन्दर बना रहे हैं 'दिन'

अपनी कई कविताओं का संकलन इस पुस्तक में प्रस्तुत करके दिनेश गुप्ता 'दिन' ने युवा श्रृंगार कवियों को न केवल एक बेहतरीन संग्रह प्रदान किया है पर और खूबसूरत लिखने का हौसला भी दिया है। अपने कार्य के साथ-साथ अपनी जान, लेखन को भी जारी रख कर 'दिन' ने सभी को प्रोत्साहित किया है जिसके लिए अनेक शुभकामनाएं।

किताब को प्रकाशित किया है 'ऑथर्स इन्क इंडिया' ने पर एक मलाल मुझे ज़रूर हो रहा है कि पुस्तक का सम्पादन शत-प्रतिशत नहीं हुआ है और मैंने कई जगह वर्तनियों में गलतियाँ पाई हैं। अगर पुस्तकें गलत छापेंगी तो हिन्दी के गिरते स्तर में उत्थान कहाँ से आएगा? फॉर्मेटिंग और सम्पादन में मेरे ख्याल से अभी काफी सुधार की गुंजाइश है और इश्वर से प्रार्थना है कि इसका दूसरा संस्करण छपे और उसमें इन सभी गलतियों को सुधारा जाए।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस युवा श्रृंगार कवि को आप पढना चाहेंगे। किताब के बारे में और जानकारी के लिए देखें:
Web: http://dineshguptadin.in/
FB: https://www.facebook.com/dineshguptaofficial
Youtube: https://www.youtube.com/watch?v=tCKCnxwAwfc
Email: dinesh.gupta28@gmail.com

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

मसाला चाय | Terms & Conditions Apply | किताब समीक्षा

"दिव्य प्रकाश दुबे", एक ऐसा नाम है जो नए प्रभावशाली युवा हिन्दी लेखकों में अपना नाम शुमार करवा चुके हैं। इनकी दो किताबें, "मसाला चाय" और "Terms & Conditions Apply" अब तक छप चुकी है और हिन्द युग्म ने इन पुस्तकों को प्रकाशित किया है। आज दोनों किताबों के बारे में साथ ही बात करेंगे।
मैं किसी भी किताब के बारे में एक ऐसी सोच पेश करने की कोशिश करता हूँ जो कि एक सामान्य पाठक सोचता हो। यह नहीं कह सकता कि कितना सफल होता हूँ पर सोच की दिशा उसी तरफ रहती है। मैं, ना ही कोई समीक्षक हूँ और ना ही बड़ा लेखक, इसलिए इस ब्लॉग पर प्रकाशित सभी विचार मेरे निजी हैं और इन्हें अन्यथा किसी तरह न लें :)

"मसाला चाय" और "Terms & Conditions Apply" दोनों करीब करीब एक सी किताबें हैं जिसमें हिंगलिश का पुरज़ोर प्रयोग हुआ है। हिन्दी लेखन में वैसे तो मैं 'हिंगलिश' का हिमायती नहीं हूँ क्योंकि मैं इसे भाषा में भ्रष्टाचार मानता हूँ पर लेखक ने शायद इस ख्याल से यह किताबें लिखी हैं कि आज कि जो युवा बोलचाल भाषा है, जो कि ना ही शुद्ध हिन्दी है और ना ही शुद्ध अंग्रेजी है, को लेखन में इस्तेमाल किया जाए जिससे युवा पाठक अपने आप को इन किताबों के साथ जोड़कर देख सके। शायद यह प्रयोग सफल भी रहा है और, और भी कई किताबें इन्हीं पदचिन्हों पर चलते हुए आज पाठक-बाज़ार में प्रवेश कर चुकी हैं। तो पाठक अभिविन्यस्त (oriented) दृष्टि से देखें तो यह एक बढ़िया प्रयोग है पर भाषा की शुद्धता और उच्चता पर विचार करें तो उसमें संशय हो आता है।

दोनों ही किताबों ने कई छोटी-बड़ी कहानियों का एक पुलिंदा पेश किया है और सभी बेहद रोचक और आपको अपने अन्दर समेटने वाली हैं। क्योंकि यह युवाओं को ध्यान में रखते हुए लिखी गयी कहानियाँ हैं, इसलिए ये इस तबके को तुरंत पसंद आएगी। इन कहानियों के पात्र हमारे ही इर्द गिर्द छोटे-बड़े शहरों में बसते हैं। शायद कोई कहानी आपकी अपनी भी हो, शायद आपके किसी दोस्त कि या फिर अखबार में पढ़े किसी खबर की, पर हैं ये हमारी ही। कई कहानियाँ जो छोटे शहरों की हैं आपको आपके अतीत में ले जाएँगी और वो अल्हड़ दिन याद दिला देंगी। छोटे शहरों में चुप्पी में जीती ये कहानियों को आवाज़ दी है इन किताबों ने तो बड़े शहर के युवाओं की आम ज़िन्दगी को भी बहुत ही सरल शब्दों और विचारों में पेश किया है दिव्य प्रकाश दुबे जी ने।

इस बात पर भी ज़ोर देना चाहूँगा कि ये दोनों किताबें ऐसी हैं जिनको चाहे आप बार बार पढ़ें पर हमेशा नई सी लगेगी वैसे ही जैसे जब भी आप अपने ख़ास दोस्तों से मिलते हैं तो नए नए से लगते हैं। ये कथाएँ आपकी दोस्त हैं क्योंकि ये आप ही के बीच की हैं, आपकी हैं।

संपूर्णतः कहूँ, तो मुझे ये दोनों किताबें बेहद आकर्षक लगी क्योंकि हल्का-फुल्का पढ़ने का भी अपना ही मज़ा है वरना प्रेमचंद, निराला, इत्यादि तो हम बचपन से ही पढ़ते आये हैं :)

रविवार, 17 अगस्त 2014

दर दर गंगे (किताब समीक्षा)

कई सालों बाद कोई किताब की समीक्षा कर रहा हूँ अपने ब्लॉग पर। पिछली बार तब, जब प्रेमचंद की पहली उपन्यास पढ़ी थी। अगर इतिहास में गोता लगाना चाहें तो यहाँ लगाइए।

आज बात करेंगे "दर दर गंगे" की। यह किताब मैंने खरीदी नहीं थी पर मुझे भेंट स्वरुप प्राप्त हुई। दरअसल फेसबुक पर गुरुप्रसाद जी ने एक अच्छी सोच के तहत यह प्रस्ताव रखा है कि अगर कोई भी अपनी ओर से किसी किताब की चंद प्रतियां लोगों को भेंट करना चाहे तो ज़रूर करें। इससे लोगों का पठन क्रम भी बंधा रहता है और मेरे जैसे लोग जो नई किताबों की तलाश में रहते हैं, को भी कई विकल्प मिलते हैं। तो इसी सोच के तहत अमित व्रज जी ने भी दर दर गंगे की ३ प्रतियां योग्य लोगों को देने का प्रस्ताव रखा और मैं किताब का नाम पढ़कर ही उत्कंठित हो उठा। जब आजकल गंगा सफाई को ले कर जोरों-शोरों से बातें हो रही हैं तो "दर दर गंगे" जैसे नाम को अपने समक्ष पढ़ना ही मुझे उत्सुक बना गया। मैंने झट अमित व्रज जी के किताब वाली प्रतियोगिता में हिस्सा ले लिया और सयोंगवश जीत भी गया। इसके लिए अमित जी का बहुत आभारी हूँ।

"दर दर गंगे" को दो लोगों ने मिलकर लिखा है और कई लोगों ने इस किताब को लिखने के लिए शोध किया है। अभय मिश्र और पंकज रामेन्दु इस पुस्तक के लेखक हैं और यह किताब २०१३ में पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित हुई थी।

गंगा की 'दशा, दुर्दशा और नक्शा' को आपके मानसिक पटल और फटी आँखों के सामने यह किताब खोलकर रख देगा। गंगा किनारे बसे कई छोटे-बड़े शहर गाँवों की एक माला को पिरोकर इस किताब को सजाया गया है और बड़ी करीनता से इसकी कहानी बुनी गयी है।

"हर हर गंगे" का हम मानवों की लघु-सहिष्णुता द्वारा उपहास होते हुए और उसको सामने रखते हुए यह किताब, "दर दर गंगे" आपको सोचने पर मजबूर करेगी। कभी आप सोचेंगे "लोग ऐसे भी हो सकते हैं?" तो कभी "लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं?" दरसल हम बड़े शहरों में बसे हुए लोगों के साथ यही दिक्कत है कि हम आसमान में रहते हैं और ज़मीन से डरते हैं क्योंकि ज़मीन पर सच आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहा होता है और सच के कड़वे गरल को गटकना हम बड़ी इमारतों के छोटे दिल वालों के लिए कठिन है। 'दर दर गंगे' उसी डर को आपके सामने रखने की एक सफल कोशिश है।

३ साल में अलग अलग खण्डों में किये गए इस गंगा सफ़र और खोज को ३० संभागों में इस किताब में प्रस्तुत किया गया है। उत्तर भारत में बहती माँ के इर्दगिर्द इसके बच्चो-नुमां शहरों और गाँवों को समेटते हुए वहाँ के स्थानीय संस्कृति, विरासत और गंगा से जुड़ी वहां की जिंदगियों को खंगाला गया है।
गंगोत्री, उत्तरकाशी, टिहरी, देवप्रयाग, ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, नरौरा, गंगा नहर, कन्नौज, बिठुर, कानपुर, मनिकपुर, इलाहाबाद, विन्ध्याचल, वाराणसी, गाज़ीपुर, बक्सर, पटना, बख़्तियारपुर, मुंगेर, सुल्तानगंज, भागलपुर, कहलगांव, साहिबगंज, राजमहल, फरक्का, मायापुरी, कोलकाता और गंगासागर नगरों को इस सफ़र का हिस्सा बनाया गया है और हर नगर को गंगाजल में खंगाला गया है।

पढ़ते पढ़ते कभी आप दुखी हो जाएंगे तो कभी हतप्रभ। कभी आपकी आशा बंधेगी तो कभी निराशा। कभी आप सोचने लगेंगे तो कभी विस्मित हो बैठेंगे। यात्राएं रोचक होती हैं और उनका पढ़ना तो वैसे भी रोचक होता है पर जब वो यात्रा आपके इतिहास, संस्कृति और स्वयं से जुड़ी हों तो उस कहानी को आप और लगन से पढ़ते हैं और उसमें खुद को मथते हैं। 'दर दर गंगे' कभी आपको टिहरी बाँध की कहानी से मानव विकास के लिए चुकाया जाने वाला भावों का भुगतान करवाएगा तो कभी ऋषिकेश में पनपते नशेड़ियों और राजनीति से रूबरू मिलवाएगा। कभी आप कन्नौज के खुशबू कारोबार में फैली लोलुपता की गंध को गंगा की नज़रों से देखेंगे तो कभी कानपुर में जुतियों की मार खाते बेबस गंगा के सन्नाटे को सुनेंगे। आखिर कौन सी वो जगह है जहाँ हिन्दू जलाए नहीं गाड़े जाते हैं? आखिर गंगा पर चल रहा करोड़ों का जीवन कैसे खतरे में है? यह सब भी आपकी आँखों के सामने से इसी किताब के जरिये गुज़रेगा। बनारस की गलियों में खोयी गंगा और पटना में विकास की आड़ में छिपी मूक गंगा। भागलपुर में जलजन्तुओं को भी पनाह न दे पाती गंगा और राजमहल में टकराव के बीच बचती गंगा। फरक्का बाँध की बलि चढ़ी गंगा और कोलकाता की जद्दोजहद में बचती गंगा। यह सब आप 'दर दर गंगे' में जान सकेंगे।

वैसे तो पूरे सफ़र में कई उतार चढ़ाव हैं। हर जगह आपको अच्छे और बुरे लोग मिलते जाएंगे पर चूँकि सालों की लोलुपता, स्वार्थ और अनदेखी ने हमसे भी पुरानी इस नदी का जो भेदन किया है, उसे भरना इतना आसान नहीं होगा। हर जगह की अपनी मुश्किलें हैं और कई लोग अपनी अपनी जगहों से इसके लिए लगातार, निश्छल प्रयास भी कर रहे हैं। इनके बारे में भी पढ़कर आपको सुकून मिलेगा और प्रोत्साहन भी। कई परम्पराओं को जानकार आपको आश्चर्य होगा और आपके कौतुहल को और बल मिलेगा। ३ साल के अथक प्रयास से अभय और पंकज ने आपको अपनी माँ को जानने का २२१ पन्नों का तोहफा दिया है। इस तोहफे को ज़रूर अपनाइए और धीरे धीरे अपने ज्ञान, सोच और जीवन को और विस्तृत बनाइये। सच से सामना होना ज़रूरी है क्योंकि अगर आज हमारी आँखें नहीं खुली तो जल्द ही गंगा की आँखों के आगे अँधेरा छा जाएगा। चयन आपका।

जाते जाते बस एक बात और कहना चाहूँगा: गंगा के लिए शायद आप कोई विस्तृत काम न कर सकें पर एक छोटा सा कदम आज ज़रूर लें। प्लास्टिक की थैलियों का कम से कम इस्तेमाल करें। ये भी आधी-तिरछी हों गंगा में ही पहुँचती हैं। बाजार जाएं तो थैला ले कर जाएं। एक छोटा कदम, एक बड़ा बदलाव।

'दर दर गंगे' खरीदें: फ्लिप्कार्ट, अमेज़न, होमशॉप१८ से।

नोट: जल्दी ही "नीला स्कार्फ", "मसाला चाय" और "Terms & Conditions Apply" की भी समीक्षा करूँगा। पढ़ते रहिये!

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

जय हिन्दी हो !!


तो जनाब हिन्दी दिवस तो निकल गया पर हम वो थोड़े ही ना हैं जो हिन्दी केवल हिन्दी दिवस वाले दिन ही पढ़ते, लिखते या बोलते हैं... अब जब भारतीय फिरंगियों को (जिन्हें हिन्दी आती ही नहीं) रत्ती भर इस बात का गम नहीं है कि अपनी मातृभाषा ही नहीं आती है तो हम भी कम नहीं... हमें भी उतना ही गर्व है कि हिन्दी शान से बोलते, लिखते और पढ़ते भी हैं..
अब संयोग कि बात ही देख लीजिये.. कल हिन्दी दिवस गया और मैं अपनी ज़िन्दगी का पहला हिन्दी उपन्यास पढ़ रहा हूँ.. बस यह समझ लीजिये की एक-दो दिन में ख़तम ही होने वाली है..
आपको अचरज हो रहा होगा कि बालक पिछले साल भर से हिन्दी ब्लॉगिंग कर रहा है और आज तक इसने एक भी हिन्दी उपन्यास के पन्ने न झाड़े? अब इसे आप मेरे किस्मत के खाते में डालें या फिर मेरे आलस पर थोपें पर सत्य वचन तो यही है कि यह उपन्यास मेरी पहली है और मैं इसका ऐसा कायल हो गया हूँ कि अब तो हर हफ्ते एक न एक नया उपन्यास पढूं... पर देखिये कितना संभव हो पाता है..

रंगभूमि
प्रेमचंद जैसे महान लेखक और हिन्दी के उपासक की जितनी प्रशंसा की जाय कम ही है.. मैंने अपने स्कूल के समय एक-दो कहानियां ज़रूर पढ़ी थीं और लोगों के मुख से इनके बारे में बहुत सुना भी था पर यह न पता था कि इनकी एक किताब मुझे इनका दीवाना बना देंगी..
रंगभूमि जीवन के हर वर्ग को अपनी आगोश में लेता है.. वह हर तरह के चेहरे को बेनकाब करता है.. वह हर तरह के भाव को अपने में समेटे हुए है..

जहां एक अँधा अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ रहा है वहीं पर इज्ज़तदारों की नींद एक साथ ऐसी उडी हुई है मानो एक बालक किसी गबरू जवान को उठा कर पटक दे.. सूरदास अँधा है पर निर्बल नहीं.. वह शरीर और मन दोनों से पूरे गाँव का दिल जीते हुए है और शायद यह जीत अंत तक बनी रहेगी (अब मैंने भी पूरा पढ़ा नहीं है और आपको बता दूं तो रोमांच कहाँ रह जाएगा?)..

वहीँ दूसरी ओर गहन चिंतन और मनन करने वाले कुछ नौजवानों की अपनी अलग ही ज़िन्दगी चल रही है जिसे वो अपनी विस्तृत और संकीर्ण सोच से इसे खेल रहे हैं.. यहाँ मौत भी है और ज़िन्दगी भी.. यहाँ प्रेम भी है और नफरत भी.. यहाँ सम्मान भी है और तिरस्कार भी..
इनकी कहानी हम जैसे युवकों/युवतियों से ज्यादा जुड़ी हुई है.. इसलिए नहीं कि हमारे और इनके राह एक हैं पर इसलिए कि ये जैसा सोचते हैं वैसे ही हम भी करते हैं..

तो रंगभूमि मेरे मन को इस तरह रंग चूका है कि छूटे ना छूटे.. जहाँ ज़िन्दगी के हर रंग को प्रेमचंद ने अपनी कलम से इतने गहरे और सुव्यवस्थित तरीके से सराबोर किया है.. मानिए मेरी.. अगर आप भी न रंगे तो यह पोस्ट ही मिथ्या समझियेगा..

जितना प्रेमचंद के बारे में सुना था आज बोल भी रहा हूँ.. और आशा करता हूँ कि उनके द्वारा रचित और भी लेख/उपन्यास मेरी आँखों तले गुजरेंगे और मैं उसका रसपान करने में सफल रहूँगा..

यह हिन्दी दिवस प्रेमचंद को समर्पित और हर उस रचना को, जिसने हिन्दी को और भी सशक्त और उच्च भाषा का ओहदा प्रदान किया है..

जय हिन्दी हो !!
जय हिन्दी ब्लॉगर्स की !!