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सोमवार, 27 अप्रैल 2015

रिश्तों की डोर

रश्मि उन लाखों लड़कियों की तरह है जो आज बेबाक, आज़ाद और खुले माहौल में रहना पसंद करती हैं और रहती भी हैं। पहले पढ़ाई के लिए कई साल घर से दूर रही और उसके बाद से नौकरी करते हुए भी घर से दूर रहती है। रश्मि के मम्मी-पापा ने कभी उसके निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया बस अपने सुझाव भर दिए. आज एक अच्छी कंपनी के एक अच्छी पोस्ट पर रश्मि आसीन है।

जैसा कि अक्सर होता है, माँ-बाप दूर रहने वाले अपने बच्चों से दिन में दो मिनट बात कर दिल को तसल्ली दे देते हैं, वैसा ही यहाँ भी था। हर रोज़ एक-दो दफे माँ और पापा, दोनों से रश्मि की बात हो ही जाती थी। जब बात हाल-चाल तक कि रहती, तब तक तो ठीक था पर जब माँ के सवाल ऑफिस, वहाँ के लोग, दूसरे दोस्त और अन्य निजी मामलों पर पहुँचती तो रश्मि थोड़ी खीज जाती थी। उसे लगने लगता जैसे कोई उसके पंखों को पकड़ कर नीचे गिराने की कोशिश कर रहा है परन्तु ऐसा था नहीं। रश्मि केवल एक बेटी होने की हैसियत से ही सोचती थी। सच ही है, जब तक आप खुद माँ या बाप नहीं बन जाते, आप अपने माँ-बाप का आपके प्रति व्यवहार को समझ नहीं सकते। इसी खीज की वजह से कई बार वह बहाना बना कर फ़ोन काट देती।

ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा और रिश्ता यूँ ही संभालता रहा। पर एक दिन उसके पापा का फ़ोन आया और अगले ही दिन वो अपने घर पर थी। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा उसके साथ भी हो सकता है। पिछले रोज़ ही माँ घर पर काम करती हुई अचानक ज़मीन पर फिसली और दुर्भाग्यवश उनका सिर पास ही रखे टेबल की नोक से जा टकराया। विधि का विधान ही था कि एक चोट ने रश्मि से उसकी माँ को छीन लिया। यह घटना जितनी दर्दनाक थी, उतनी ही ये सभी के लिए भयावह थी। महीने भर तक घर में सन्नाटा पसरा रहा और फिर ज़िन्दगी के क्रूर नियम के हिसाब से सबने अपनी अपनी डोर फिर संभाल ली

रश्मि वापस अपने शहर आ गई और ऑफिस में व्यस्त हो गई पर हर रात वो अपने कमरे के कोने में बैठकर रोती थी। अपने फ़ोन को देखते हुए सोचती थी कि शायद यह सब एक अनचाहा सपना हो और उसके माँ के नाम से यह फ़ोन फिर से बज उठे। वो अपनी माँ से बात करना चाहती थी, उनकी आवाज़ सुनना चाहती थी, अपने ऑफिस, अपने दोस्तों, अपने बारे में, सब कुछ बताना चाहती थी। अब उसके पास कोई बहाना नहीं था पर समय का चक्र निर्दयी होता है। आज एक तरफ जब उसके पास बात न करने का बहाना नहीं था तो दूसरी और उसके फ़ोन के दूसरी ओर से अब कभी माँ की आवाज़ नहीं आती थी। वह ग्लानि और पश्चाताप में जीने को मजबूर थी। अब वो दिन ढल गए थे जब यह सब कितना आसान था।

सोमवार, 19 जनवरी 2015

सफ़र वही, सोच नई

राजेश, यही नाम है उसका। वैसे तो कोई भी नाम ले लीजिये, कहानी कुछ ऐसी ही रहेगी।

राजेश रोज़ मेट्रो में सफ़र करता है। वैसे देखें तो अंग्रेजी वाला suffer भी कहा जा सकता है। और सिर्फ राजेश ही क्यों, सिर्फ नाम बदल दीजिये और उसी की तरह कई और राजेश भी रोज़ मेट्रो में सफ़र करते हैं। कहते हैं कि इस देश में एक तो साधारण श्रेणी (General) का होना और दूसरा लड़का होना बहुत बड़ा गुनाह है। कम से कम पढ़ाई के क्षेत्र में। पर जन-परिवहन में किसी भी श्रेणी का नौजवान लड़का होना सबसे बड़ा गुनाह-ए-तारीफ़ है।

हर किसी दिन की तरह वो भी दिन था। राजेश ऑफिस से लौट रहा था और किस्मत को दाद देनी होगी कि उसे आज बैठने के लिए सीट मिल गई जो कि ना ही महिलाओं के लिए और ना ही विकलांगों और वृद्धों के लिए आरक्षित थी। मन में तसल्ली लिए और कानों में टुन्नी (earphones) घुसाए वो आज इस सफ़र का आनंद उठा रहा था कई दिनों बाद। पास वाली महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर एक नौजवान लड़की बैठी थी, उससे शायद कुछ साल छोटी होगी।

चंद स्टेशन निकले होंगे कि अचानक राजेश के सामने एक वृद्ध महिला आ कर खड़ी हो गई जो कि देखने से गंभीर और अच्छे घर की लग रही थी। कुछ लम्हों के लिए तो किसी ने कुछ नहीं किया पर राजेश को लगा कि अब बगल वाली लड़की उठ कर उन्हें सीट देगी पर यहाँ किस्मत को खुजली हो आई और ये हो न पाया।

इसी बीच वृद्धा की नज़र राजेश पर गड़ गई और उसने झट बोल दिया, "तुम उठ जाओ, मुझे बैठने दो।" अगर और कोई दिन होता तो शायद कोई बात नहीं थी पर आज तो उसके बगल में एक हमउम्र लड़की बैठी थी तो फिर वो ही क्यों उठे? ऐसा उसने सोचा और तपाक से बगल वाली मोहतरमा से कहा, "आप उनको बैठने दीजिये। ये महिलाओं के लिए आरक्षित भी है और आप खड़ी हो कर यात्रा कर सकती हैं।" एक बार को तो जैसे लड़की और वृद्धा, दोनों को सांप सूंघ गया। शायद दोनों ने ऐसी "असामाजिक" जवाब के बारे में सोचा ही नहीं था।

इसके बाद वृद्धा ही उससे बहस करने लगी, "लड़की क्यों उठे, तुम्हें उठना चाहिए।" पर राजेश आज अड़ गया बोला, "अगर लड़का-लड़की को एक समझा जाता है तो मैं ही क्यों उठूँ? केवल मुझे ही इसके लिए मजबूर क्यों किया जाए? क्या मैं दिन भर काम करके नहीं आया हूँ जो नहीं थका होऊँगा? अगर हम आज Gender Equality की बात कर रहे हैं तो फिर आज मैं नहीं उठूँगा, आप इस लड़की से अपनी सीट देने के लिए कहिये"

आसपास वाले यात्री एक बार को तो चौंके पर फिर राजेश की बातों की ओर झुकने लगे। लड़की ने वृद्धा के बिना बोले ही सीट खाली कर दी।

स्टेशन बदल रहे थे पर साथ ही साथ लोगों की सोच भी।

सोमवार, 29 सितंबर 2014

सुनो, अरे सुनो!

साभार: गूगल
राहुल मेरी-आपकी तरह एक आम आदमी, नौकरी करता है, घर आता है, घर चलाता है और फिर अगले दिन शुरू हो जाता है. अपने पितृगाँव से दूर है पर घर पर सब खुश हैं कि लड़का अपना अच्छा ओढ़-बिछा रहा है और घर की गाड़ी चला रहा है. अभी राहुल की शादी नहीं हुई है पर कार्य प्रगति पर है.

हमारी ही तरह राहुल भी सोशल मीडिया का भोगी है, आसक्त है. जो करता है, वहाँ बकता है. लोगों को लगता है कितना बोलता है, हर बात यहाँ खोलता है. कभी फेसबुक तो कभी ट्विटर तो कभी व्हाट्सऐप. हर जगह उसकी मौजूदगी है. करोड़ों-अरबों लोगों की तरह ही वो भी दिन भर बकर बकर करता रहता है.

ऐसा लगता है जैसे सुनने वाले तो बचे ही नहीं, सब बोलने वाले और इज़हार करने वाले ही इस दुनिया में रह गए हैं. अगर बोलना कला है तो सुनना उससे भी बड़ी कला है पर आज की अगड़म-बगड़म ज़िन्दगी में लोगों को विश्वास ही नहीं होता है कि सुनना भी एक कला है क्योंकि उन्होंने तो सिर्फ बकना ही सीखा है.

इस आसक्ति का शिकार हुए राहुल को यह पता ही नहीं चला कि जो वो सोशल मीडिया और फ़ोन पर तरह तरह के ऐप्स से दुनिया से जुड़ा हुआ है, दरअसल वह इस सिलसिले में खुद से ही कट चुका है. नौकरी करने, घर चलाने और सोशल मीडिया के भ्रमित दिखावे की बराबरी करने के चक्कर में कब वह अन्दर से टूट गया यह उसे एक दिन पता चला जब वह अपने कमरे में अपने लैपटॉप के सामने बैठा था. अचानक उसे अपने भविष्य की चिंता होने लगी कि वो करना क्या चाहता है, कर क्या रहा है और भी न जाने कैसे-कैसे उटपटांग सवाल.

ऐसा पहली बार हुआ था जब वो खुद का विश्लेषण कर रहा था और करते करते बेहद डर गया था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किससे बात करे, क्योंकि यहाँ सुनने वाला तो कोई है ही नहीं, सिर्फ बोलने वाले लोग ही बचे हैं. वह अपने फेसबुक की लिस्ट खंगालता है, ट्विटर पर अनजान दोस्तों के फेहरिस्त जांचता है और फ़ोन पे अनगिनत नंबरों को टटोलता है पर एक ऐसा इंसान नहीं ढूंढ पाता जो सिर्फ और सिर्फ उसे सुने, कुछ कहे नहीं, अपनी सलाह न थोपे. उसका मन उदास हो जाता है और वह सब कुछ बंद करके सोने की नाकाम कोशिश करता है.

ऐसा कई दिन चलता है. कई चीज़ें आप अपने घरवालों से नहीं अपितु अपने दोस्तों के साथ साझा करते हैं पर राहुल तो इस वैकल्पिक जद्दोजहद में एक दोस्त भी न बना पाया था. सब पानी के बुलबुले की तरह इधर उधर उड़ते दिखे और अंततः मानसिक तनाव, नौकरी के दबाव और ज़िन्दगी से बिखराव ने राहुल के दिमाग को चरमरा दिया और उसे उदासी (डिप्रेशन) के गड्ढे में गिरा दिया.

एक हँसता, बोलता, खिलखिलाता नौजवान भरी जवानी में उदासी का शिकार हुआ क्योंकि उसको सलाह देने वाले तो बहुत थे पर सुनने वाला एक भी नहीं.

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

सस्ती जान

राकेश और मोहित, पक्के दोस्त. स्कूल में ११वीं में एक साथ थे. वैसे तो दोनों मध्यमवर्गीय परिवार से थे पर युवावस्था में आ कर सभी शौकीन हो जाते हैं क्योंकि ये समय ही होता है बेपरवाह उड़ने का.

दोनों को चौपाटी में जा कर खाने का बड़ा शौक था. शहर के एक व्यस्त बाजार में सड़क किनारे खाने का वो आनंद किसे नहीं होगा? पर चूँकि यह जगह उनके घर से दूर था, तो कभी-कभार बस पकड़ के पहुँच जाते था. चंद महीनों पहले मोहित के पापा ने घर के लिए स्कूटी खरीद ली थी और मोहित के लिए 'लर्नर्स लाइसेंस' भी बनवा दिया था. गाहे-बगाहे दोनों इसी स्कूटी पर मस्ती मारने निकल पड़ते पर घर से यह सख्त हिदायत थी कि दोनों को हेलमेट पहनना पड़ेगा. शहर में भी यही नियम था.

घर से निकलते वक़्त तो दोनों हेलमेट पहने हुए निकलते पर अगले ही नुक्कड़ पर पीछे बैठा यात्री अपना हेलमेट अपने हाथों में टांग लेता. फिर तो बस उन चौराहों पर जहाँ पुलिस खड़ी होती, वहीँ पर हेलमेट सिर पर सजता था नहीं तो हाथ पर. कई महीनों तक ऐसा चलता रहा और अब तो यह आदत सी बन चुकी थी. वैसे भी हिंदुस्तान में जान जाने से ज़्यादा चालान कटने का डर लगता है.

बस काल को इसी एक दिन का इंतज़ार था. दोनों चौपाटी की ओर बढ़ चले थे और पुलिस चौराहा पार करते ही पीछे बैठे राकेश ने अपना हेलमेट सिर से उतारकर हाथों में टिका लिया था. सड़क के अगले कोने पर ही एक बदहवास कुत्ता न जाने कहाँ से उनके सामने आ गया और तीव्र गति में चल रही स्कूटी को मोहित संभाल न सका और कुत्ते से बचने के चक्कर में पास ही में चल रहे डिवाइडर पर स्कूटी दे मारी.

इसके बाद दोनों हवा में उछल के सड़क के उस पार और फिर मोहित को कुछ याद नहीं. शायद कई दिन बीत गए थे और आज जा कर अस्पताल में उसकी आँखें खुली. कमरे में इस वक़्त कोई नहीं था. बस एक अखबार पड़ा था जिसमें एक फोटो थी एक नौजवान की. वह गिरा पड़ा था सड़क पर और उसके हाथों में एक हेलमेट अटका हुआ था. उसके सिर से खून का तालाब सड़क पर बन चुका था. नीचे लिखा था:

"जान सिर में होती है, हाथों में नहीं" -ट्रैफिक पुलिस

साभार: गूगल

 

रविवार, 30 मार्च 2014

हो रहा महिला सशक्तिकरण!

अनिता और पूनम पहली बार कॉलेज में ही मिली थी और समय के साथ बहुत ही गहरी दोस्त बन गयी थीं। चूँकि उनकी संकाय भी एक ही थी तो क्लास जाना, परीक्षा के लिए पढ़ना, असाइनमेंट पूरा करना, इत्यादि इत्यादि सब साथ में होता था।

जब इतनी देर साथ रहते थे तो कई सारी चर्चाएं भी दोनों के बीच होती जो कि लड़कों, रिश्तों, प्रोफेसर्स, घर, देश, इत्यादि के इर्द-गिर्द घूमता था। महिला दिवस के आसपास मार्किट में महिला सशक्तिकरण को लेकर बेहद गरम लू चली। अख़बार, टीवी, ब्लॉग, फेसबुक, हर जगह कोई न कोई अपने मन की भड़ास उढ़ेल रहा था।

चित्र: साभार गूगल बाबा
एक बार कॉलेज की छुट्टी होने के बाद दोनों घर को निकली तो रास्ते में अनिता ने कहा, "महिला सशक्तिकरण के नाम पर जो आरक्षण का ढकोसला सरकार ने किया है, वह हमें सशक्त नहीं बनाएगा।"
इसपर पूनम ने भी हामी भरते हुए कहा, "सही कह रही हो। हम लड़कियों को पुरुषों की तरफ से विशेष व्यवहार या सुविधाओं की ज़रूरत नहीं है। हम खुद में सक्षम हैं और यह हम हर क्षेत्र में करके भी दिखा रही हैं।"

दोनों में इसी तरह सरकार की नीतियों और महिलाओं को ख़ास सुविधाएं दे कर महिलाओं को और कमज़ोर करने की बात पर रास्ते भर वार्तालाप हुई और वो ऐसी व्यवस्था को कोसती रहीं।

फिर दोनों घर जाने के लिए मेट्रो में चढ़ीं और तुरंत ही महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर बैठे दो नौजवानों को उठने को कहा और खुद वहाँ बैठकर महिला सशक्तिकरण पर विचार को आगे बढ़ाने लगीं।


जब तक ऐसी पढ़ी-लिखी महिलाएं इस सशक्तिकरण का सही अर्थ ढूंढती हैं, तब तक मेरी आवाज़ में एक गीत (राबता) सुनते चलिए यहाँ पर!

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

माँ का आँचल

ऑडियो यहाँ सुनें:


प्रशांत एक सुशिक्षित और भद्र इंसान था। घर से दूर रहते ५-६ साल हो गए थे। अब नौकरी कर रहा था ३ सालों से। उससे पहले पढाई। दिल का बड़ा सख्त था। साल में २-३ बार ही घर आ पाता। नौकरी पेशा आदमी की सांस और आस दोनों उसके मालिक के हाथ में होती है। चंद रुपयों के लिए इंसान केवल दास बन कर रह जाता है।

छुट्टियों पर घर आया। माँ ने आते ही टोह लगा ली थी कि प्रशांत परेशान सा लग रहा है पर वक़्त को अपना काम करते दे रही थी, कुछ कहा-पूछा नहीं।

दूसरे दिन रात को प्रशांत की नींद उड़ गयी थी। उसके जज़्बात उसको तोड़ने को आतुर हो रहे थे। ज़िन्दगी भर की परेशानियां उसे सोने न दे रहीं थी। २ घंटे तक लेटे रहने के बाद भी जब नींद न आई तो उसके विचारों का बाँध टूट गया। वह उठा और जा कर माँ-पिताजी के कमरे का दरवाज़ा खटखटाया।

माँ ने दरवाज़ा खोला तो वह माँ से लिपट कर रोने लगा। माँ घबराई नहीं, उसे पता था कि यह आज या कल तो होना ही था। सर सहलाते हुए उसे अपनी गोद में सुला लिया। किसी ने कुछ नहीं कहा पर माँ-बेटे का जो रिश्ता था, वह सब कुछ कह गया। प्रशांत ने माँ के आँचल में सारे गम उड़ेल दिए। सभी उत्तेजनाएं और परेशानियां कब उस ममत्व के महासागर में समा गए, इसका अंदाजा ही न लगा और वह गहरी नींद में सो गया।

सुबह देर से उठा। माँ घर का कामकाज कर रही थीं और वहीँ प्रशांत की दुनिया तो बिलकुल हलकी और आनंदमय हो चली थी।

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

भौतिकवाद की दोस्ती

बात ज्यादा पुरानी नहीं है, या यूँ कहें की ज़हन में तरोताज़ा है।

कॉलेज का प्रथम वर्ष समाप्ति पर था। कई नए दोस्त बने थे, उनमें से धीरज भी एक था।
प्रथम सेमेस्टर की समाप्ति पर मैं घर से कीबोर्ड (पियानो) खरीद लाया था क्योंकि हारमोनियम के बाद अब यह सीखने की बड़ी इच्छा थी।

एक दफे मैं और धीरज क्लास से लौट रहे थे और तभी मैंने उसकी संगीत रूचि को देखते हुए बताया कि मैं घर से पियानो ले कर आया हूँ। वह बहुत खुश हुआ और उसके बारे में पूछने लगा। मैंने भी ख़ुशी-ख़ुशी उसे जानकारी दी कि कौन सी कंपनी का है और कौन सा मॉडल है, वगैरह-वगैरह।

मेरे रूम के पास पहुँचते हुए एक दूसरे को कल तक के लिए अलविदा कह रहे थे कि उसने कहा - "मुझे पता नहीं था कि तुम्हारे पास पियानो है, नहीं तो हम और भी बेहतर दोस्त हो सकते थे।" और इतना कह कर वह आगे हो लिया।

कुछ देर तक मैं स्तब्ध सा खड़ा रहा और सोचता रहा कि आजकल दोस्ती भौतिकता की गुलाम हो गयी है? किसी के पास किसी वस्तु का होना, न होना दोस्ती की डोर को मज़बूत या कमज़ोर करता है? ये हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं?

आज पीछे मुड़कर देखता हूँ तो वह वाक्या याद आ जाता है क्योंकि हर जगह आजकल भौतिकवाद ही दोस्ती का मापदंड हो चुका है। "भौतिकवाद की दोस्ती" इंसानों को दीमक की तरह खोखला करने में कामयाब नज़र आ रही है। कडुवा, पर सच।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

संस्कार

रमेश बस स्टॉप पे खड़ा बस का इंतज़ार कर रहा था। दिन काफी व्यस्त रहा था ऑफिस में।

स्टॉप से थोड़ा आगे बाईं ओर 2 मोहतरमाएं खड़ी थीं। एक के सलवार-दुपट्टे और एक के जींस-टॉप से समझ आ गया कि ये माँ-बेटी हैं और ज़रूर ही अपनी कार का इंतज़ार कर रही हैं। और दोनों के पहनावे से अमीरी टपक रही थी। रमेश सीधा-साधा मध्यम-वर्गीय इंसान, एक आह तो उठी मन के किसी कोने में, ये धन-दौलत का नज़ारा देख कर।

इतने में कहीं से एक 6-7 बरस की लड़की आई। बिलकुल मैले कपड़े ग्रीस लगे, बाल बिखरे हुए फंसे हुए झाड़ की तरह, नंगे पैर और खरोंचें, धंसी हुई आँखें और भीख मांगते हाथ।

उसका हाथ बढ़ता हुआ लड़की के जींस को लग गया।
इतने में लड़की चीख उठी "हट गन्दी, ममा देखो ना पार्टी के लिए पहने हुए कपडे गंदे कर दिए।"
ममा भी बोली पड़ी "भाग यहाँ से गंदी कहीं की। कपड़े गंदे कर दिए सारे। अब बदलने पड़ेंगे।"
इतना कह कर दोनों कुछ सरक से लिए, उस लड़की से दूर।

1 मिनट भी नहीं हुआ था कि बस स्टॉप पर खड़ी एक और 6-7 बरस की लड़की आई और उस गरीब लड़की को 2 लॉलीपॉप थमा कर पीछे अपनी माँ के पास चली गयी। रमेश ने देखा कि उसकी माँ ने बच्ची का गाल सहला दिया जैसे कह रही हो "शाबास"

आस पास खड़े लोग हैरत में थे (पर अमीर मोहतरमाएं अभी भी अपनी अमीरी में व्यस्त थी और अपने कपड़े  झाड़ रही थी) और रमेश सोच रहा था "माँ-बाप का, बचपन से ही अपने बच्चों में अच्छे संस्कार देना कितना ज़रूरी है, यह बात आज उसे व्यावहारिक तौर पर देखने को मिल गया था।"

वह खुश था अच्छाई का बुराई को खदेड़ते देख। संस्कार का अमीरी को पटकते देख। एक छोटी बच्ची को अच्छा बनते देख।

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

मधुशाला की राह

नौकरी में रमे हुए राकेश को १ ही साल हुआ था.. अपने कॉलेज में सबसे अच्छे छात्रों में शुमार था और नौकरी में भी अव्वल..

जब अंटे में दो पैसे आने लगे तो मनोरंजन के साधन बदलने लगे.. जहाँ एक ढाबा ही काफी हुआ करता था दोस्तों के साथ, आज बड़े-बड़े होटलों में जाता था..
कभी दारु-सिगरेट नहीं पी पर कुछ ही दिन पहले दोस्तों के उकसाने पर शुरू कर दी.. सोचा कि अब आज़ाद है.. और दोस्तों ने कहा कि शराब पीने से दोस्ती बढ़ती है, रुतबा बढ़ता है... थोड़े पैसे भी हैं.. कुछ नया करते हैं.. कई बेहतर विकल्पों को दर-किनार करते हुए मधुशाला की राह चुनी..

कुछ ही महीनों में भारी मात्र में मय-सेवन होने लगा.. बेवक़ूफ़ दोस्तों ने उसे और उकसाया और अब तो वह पीकर हुड़दंग भी मचाता, आस-पास के लोग परेशान होने लगे..

एक दिन रात को लौटते वक़्त एक कार को अपनी बाईक से टक्कर दे मारी.. नशे में कहा-सुनी भी कर ली.. घर पहुँचने से कुछ पहले पीछे से बाईक पर उसी कार का ज़बरदस्त धक्का लगा और सुनसान रास्ते पर राकेश की लहू से लथपथ लाश अगली सुबह शहर भर में चर्चा में थी.. मधुशाला की राह का अंत हो चुका था..

राकेश के जनाज़े में वही लोग नदारद थे जो कुछ दिनों पहले उसके साथ बैठकर पीते थे.. वो मधुशाला में बैठे, किसी और राकेश का इंतज़ार कर रहे थे..

शनिवार, 31 दिसंबर 2011

प्यार में फर्क

दिवाली का दिन था और विशेष अपने कॉलेज से घर छुट्टी पर आया हुआ था..
ठण्ड भी बढ़ रही थी और इसलिए विशेष के पिताजी अपने लिए एक जैकेट ले कर आये थे...
विशेष ने जैकेट देखा तो उसे खूब पसंद आया और वह बोल उठा - "वाह पापा! यह तो बहुत ही अच्छा जैकेट है |"
इतना बोलना था कि पिताजी तुरंत बोले - "अगर तुम्हें पसंद हो तो तुम रख लो, मैं अपने लिए और ले आऊंगा |"

यह किस्सा यहीं समाप्त हो गया और कई साल बीत गए...

विशेष अब नौकरीपेशा और शादीशुदा आदमी हो चुका था.. माता-पिता साथ ही में रहते थे..

एक दिन वह अपने लिए कुछ शर्ट्स ले कर आया और उन्हें सबको दिखा रहा था कि एक शर्ट को देख कर पिताजी बोल उठे - "वाह! यह शर्ट तो बेहद स्मार्ट लग रहा है |"
और विशेष तुरंत बोल उठा - "पापा, अगर आपको यह पसंद है तो मैं आपके लिए ऐसा ही एक और शर्ट ले आऊंगा जल्द |"

रात को अपने आराम-कुर्सी पर बैठे पिताजी को वो दिवाली वाली बात याद आ गयी और उन्हें इस बात का एहसास हो गया कि जो प्यार माँ-बाप अपने बच्चों को देते हैं, वैसा ही प्यार बहुत ही कम बच्चे अपने माँ-बाप को लौटा पाते हैं.. प्यार में फर्क हो ही जाता है...

पर वह खुश थे कि इस ज़माने में भी उनका बेटा उन्हें कम से कम मना तो नहीं कर रहा है और इसी खुशी में वो नींद की आगोश में खो गए...

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

मौत से ज़िन्दगी

मनोज, एक सीधा-साधा मेहनती इंसान... कॉलेज से प्रथम श्रेणी में स्नातक और फिलहाल नौकरी पेशा..
घर पर माँ, एक छोटा भाई और एक छोटी बहन का पूरा बोझ उसके ऊपर..

प्रथम श्रेणी से पास होने के बावजूद एक मामूली नौकरी मिली थी बड़े शहर में.. कुछ से अपना गुज़ारा चलाता और बाकी घर पर भेजता..
बहन की शादी और छोटे भाई के लिए एक दुकान खोल के देने की अंतर-इच्छा थी पर इस नौकरी के भरोसे संभव नहीं था..

कुछ साल बीते तो सर पर जिम्मेवारी मार करने लगी.. अब थोड़ा तंग-तंग रहने लगा था.. और ना ही उसकी काबिलियत के मुताबिक़ उसे नौकरी मिल रही थी...
शहर के दोस्त सिर्फ शहरी थे, दिली नहीं.. किसी से अपना दुःख नहीं बाँट पाता और दिन-ब-दिन परेशानी से घिरता जा रहा था...
कभी-कभी अखबार पढ़ता तो पता चलता कि फलां दुर्घटना में पीड़ित के परिवार को ५ लाख मिले.. फलां बम धमाके में मृत के परिजनों को ७ लाख मिले..

सोचता, कि कभी उसके साथ भी ऐसा हो जाए तो इतने पैसों से उसकी अंतर-इच्छा शायद पूरी हो जाए.. आत्महत्या के लिए कोई पैसे नहीं मिलते थे पर सरकारी दुर्घटना में ज़िन्दगी को चंद पैसों में तोला जाता था जो कि मनोज के परिवार के लिए बहुत था...

पर उसे क्या खबर थी कि यह सोच एक दिन सच्ची खबर में बदल जाएगी..
घर लौट रहा था और ट्रेन दुर्घटना में ज़िन्दगी ने मौत को गले लगाया और फिर सरकार ने मृत के परिवार को ५-५ लाख रूपए धनराशी देने की घोषणा की...

आज एक मौत ने तीन जिंदगियों को जान दी थी पर क्या यही एक रास्ता था? क्या ज़िन्दगी, मौत की मोहताज हो गयी थी?
शायद मनोज के लिए इसके अलावा कोई विकल्प न था और उसका उत्तर "हाँ" ही होता...

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

परवरिश

संगीत के क्षेत्र में गुरूजी ने बहुत नाम कमाया था.. कई देशों और महफ़िलों की शान रह चुके थे वो..

अब उनकी तमन्ना थी की उनकी दोनों बेटियाँ भी संगीत के क्षेत्र में उनकी तरह नाम करे और समाज और देश का भी सर ऊँचा करे..

अच्छे ख्यालों से उन्होंने दोनों बेटियों को संगीत की शिक्षा-दिक्षा देनी शुरू की..

बड़ी बेटी का तो खूब मन लगता था और पिताजी की एक आवाज़ में ही वह आ कर रियाज़ के लिए बैठ जाती पर छोटी वाली को यह पसंद नहीं आता था..
कई बार डरा कर बुलाना पड़ता तो छोटी वाली बहुत सहम जाती पर कुछ कर नहीं सकती थी.. उसका सहमा हुआ चेहरा उसके पिता को नहीं दिखता था..

कुछ सालों तक ऐसा चलता रहा और छोटी के अंदर रोष और गुस्सा बढ़ता रहा पर बोला उसने कुछ नहीं.. पिताजी ज़बरदस्ती करके रियाज़ के लिए बिठा लेते और उसे बैठना पड़ता..

पर एक दिन वो भरा हुआ ज्वालामुखी फट पड़ा.. छोटी रियाज़ से उठ खड़ी हुई और पिताजी पर बरस पड़ी.. बोली-"नहीं करना मुझे रियाज़, मुझे संगीत में रूचि नहीं है.. क्या आपको यह बात इतने सालों में समझ नहीं आई? केवल ज़ोर देने से मैं संगीत नहीं सीख सकती.. मेरी दूसरी कलात्त्मकता को आपके ज़ोर-ज़बरदस्ती ने मौत की घूँट पिला दी है.. आपने मेरी जिंदगी के कई विकासशील सालों को बर्बाद कर दिया है"

इतना कहकर वह रोने लगी और पैर पटकती हुई कमरे से चली गयी..

बड़ी और गुरूजी भौंचक्के से बैठे देख रहे थे..
गुरूजी कभी बड़ी को देखते और कभी दरवाज़े की ओर.. सोच रहे थे परवरिश तो दोनों की एक ही हुई है फिर यह बदलाव कैसा?
पर उनके ज़हन में यह बात नहीं आई कि सभी इंसानों को एक ही तराज़ू में नहीं तोला जा सकता..

जाते-जाते मेरा रिकॉर्ड किया हुआ एक गीत सुनते जाइए: चाँद सिफारिश (फ़ना)

गुरुवार, 26 मई 2011

सुख-दुःख के साथी

कॉलेज खत्म होने में बस कुछ ही दिन बाकी थे.. और हर किसी कि तरह सबको ये गम सता रहा था कि अब पता नहीं कब मुलाक़ात हो...
और सही भी था.. एक शहर में रहकर मिलना मुश्किल हो जाता है तो दूसरे-दूसरे शहरों में रहने वालों कि तो बात ही क्या..

राहुल और मोहित काफी अच्छे दोस्त थे पर दोनों कि नौकरी अलग-अलग शहरों में थी... उन्हें भी पता था कि अब किस्मत की बात है जब उनकी अगली मुलाक़ात हो..

कई साल बीत गए और राहुल की सगाई हुई और उसने मोहित को बुलाया.. पर नौकरी में व्यस्त रहने के कारण वह पहुँच नहीं पाया..
राहुल ने शादी में आने की पक्की बात कही और मोहित राज़ी भी हुआ.. पर बिलकुल अंतिम समय में उसे काम से विदेश यात्रा करनी पड़ी और वह फिर से राहुल कि ख़ुशी में शामिल ना हो सका..
अगला शुभ अवसर राहुल की बेटी होना था और इस बार मोहित खुद की शादी होने के कारण नहीं जा पाया..
राहुल को अब बहुत बुरा लगा कि हर ख़ुशी के मौके पर मोहित नहीं आता है पर वह भी इसके लिए कुछ कर नहीं सकता था...

फिर एक दिन कई सालों बाद मोहित राहुल के दरवाज़े पर खड़ा था.. अवसर इस बार भी था पर राहुल ने ज्यादा लोगों को बताया नहीं था.. मोहित को भी नहीं...
राहुल के पिता का निधन हो गया था और उसके सामने मोहित, उसका परम-मित्र खड़ा था उसके साथ, उसके दुःख में..
वह मित्र जो उसकी किसी ख़ुशी में शामिल नहीं हो पाया था पर दुःख में उसके कंधे पर हाथ रख कर सांत्वना देता हुआ खड़ा था...
राहुल ज्यादा कुछ बोल नहीं पाया.. आश्चर्य से कुछ क्षण देखता रहा और फिर रोने लगा..

आज उसे एक गीत बिलकुल विपरीत मालूम हो रहा था - "सुख के सब साथी, दुःख में न कोई"

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

पढ़े-लिखे अशिक्षित

२ दिन बाद होली होने के कारण मेट्रो में काफी भीड़ थी.. लोग अपने-अपने घर पहुँचने की जल्दी में थे और शुक्रवार होने के कारण भीड़ कुछ ज्यादा ही हो गयी थी..
मैं भी अपने घर जाने के लिए मेट्रो में चढ़ा हुआ था और मेट्रो की हालत ऐसी कि तिनका रखने तक की जगह नहीं..
मेरे ठीक सामने एक दंपत्ति खड़ा था.. दोनों उम्र में काफी छोटे लग रहे थे और माँ के गोद में ५-६ महीने का बच्चा भी था.. बच्चा रो रहा था और बार-बार दोनों को परेशान कर रहा था और सीट न होने के कारण परेशानी और बढ़ गयी थी..

मेरे सामने एक हट्ठा-कट्ठा नौजवान, एक लैपटॉप बैग लिए, चश्मा चढ़ाए आराम से सो रहा था..
मैंने उसे हिलाते हुए कहा - "सर, अगर आप अपनी सीट बहनजी को दे दें तो बेहतर होगा.. बच्चा परेशान कर रहा है"
उसने उस महिला की तरफ देखते हुए तपाक से गुस्से में कहा - "नहीं, मुझे उठने में दिक्कत है" और आँखें फिर बंद कर लीं..

यह सुनकर मैं तो दंग रह गया पर इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, बगल में बैठा एक वैसा ही नौजवान उठ खड़ा हुआ और अपनी सीट बहनजी को दे दी..

वह नौजवान ना ही लैपटॉप बैग लिए हुए था, ना ही चश्मा चढ़ाए और ना ही उसकी वेशभूषा उसके आर्थिक स्थिति के सही होने का प्रमाण दे रहा था..

मुझे झटका लगा और मैं सोचने लगा - पढ़ा लिखा और धनी कौन था? यह कि वो?
और मैं दोनों को एक-एक करके देखते हुए इसी सोच में डूबा रहा...

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

चलती दुनिया

उसकी अपने-आस पड़ोस और दोस्तों से बहुत बनती थी..
वह सबको खूब प्यार देता और बदले में लोग भी उसे उतना ही सम्मान और प्यार देते..
जिंदगी बहुत ही खूबसूरत और पूर्ण लग रही थी..
धीरे-धीरे वह अपने शहर, राज्य, देश और दुनिया में भी बहुत लोकप्रिय हुआ..
वह लोगों के दिल की धड़कन बन गया था और बहुत खुश था..

उसे लगता कि लोग उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं और लोग थे भी..
कभी-कभी अहम की भावना आ जाती और लगता कि उसके बिना ये दुनिया चल ही नहीं सकती..

और एक दिन उसकी घड़ी रुक गयी.. जिंदगी खत्म, झटके में..
हाहाकार मचा.. लोग बिलखने लगे.. दो दिन तक लोगों का तांता लगा रहा उसके घर के सामने..
चाहने, न चाहने वाले लोग आते और रोते..
मोची से लेकर नेता, सब ग़मगीन... एक दिन का राज्य-शोक रखा गया..

२ दिन बाद लोग अपने दफ्तर जा रहे थे, मोची जूते सुधार रहा था, नेता देश लुटा रहा था, गृहणियां घर-घर खेल रही थीं..
३ दिन बाद सब अपनी मस्ती में मस्त और अपने गम में दुखी थे..

वह चल बसा... दुनिया अपने रंग में चलती रही.. और उसकी उस सोच पर हंस रही थी कि उसके बिना दुनिया नहीं चल सकती..

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

एक लम्हां

सुधीर और सलोनी एक ही कॉलेज से पढ़े थे और एक दूसरे को कॉलेज के दिनों से जानते थे..
पसंद एक दूसरे को दोनों करते थे पर कभी इज़हार नहीं किया.. एक दूसरे के बोलने का इन्तज़ार करते रहे..

एक बार सलोनी किसी व्यावसायिक यात्रा पर सुधीर के शहर आई तो दोनों ने मिलने का कार्यक्रम तय किया..

दोनों मिलकर बहुत खुश हुए और कुछ वक्त गुजरने के बाद दोनों ने लॉन्ग ड्राईव पर जाने की सोची..
कार में दोनों चल पड़े और कुछ देर में सुधीर का मोबाइल बजा.. उसने अनायास ही कार चलाते-चलाते मोबाइल उठा कर बात शुरू कर दी कि अचानक से सामने चल रही ट्रक ने ब्रेक लगा दिए..

इससे पहले कि सुधीर कुछ समझता.. उसकी कार भिड़ चुकी थी..

अस्पताल में जब आँखें खुली तो पता चला कि सलोनी इतनी बुरी तरह से ज़ख़्मी हुई है कि बस अब जान मात्र ही बची है.. न सुन सकती है, न देख सकती है, न बोल सकती है.. जिंदा लाश बन गयी थी वो..

सुधीर अपनी जिंदगी को कोसते हुए उस एक लम्हें को तलाशता रहा जब वह सलोनी को फिर से जिंदगी दे सके, अपने दिल की बात कह सके.. 
और सलोनी अपनी किस्मत पे तरस खाते हुए उस एक लम्हें को तलाशती रही जब वह अपने दिल की बात सुधीर को बता सके..

पर अब ऐसा नहीं हो सकता था...
उस एक लम्हें की एक छोटी सी भूल, एक छोटा सा लम्हां, आज दोनों को बेबस और अपंग बना गया था..

शनिवार, 13 नवंबर 2010

अनमोल अजन्मी कन्याएं

भोला भागता हुआ कमरे में घुसा और साँसों ही साँसों में एक वज्र मार गया..
"बाबा, जायदाद के लिए फिर से हाथापाई हो गयी और गौतम ने जीतू भैया को गोली मार दी!!"

इतना सुनना था कि बाबा और माँ पवन की वेग से गाड़ी में चढ़ कर जीतू के घर पहुंचे..
वहां अफरा-तफरी मची हुई थी और इसी बीच जीतू को अस्पताल ले जाया गया...
करीब ३-४ घंटों की मशक्क़त के बाद डॉक्टरों ने जवाब दे दिया..

पुलिस केस हुआ और गौतम को अपने बड़े भाई के क़त्ल के जुर्म में जुर्माने के साथ १० साल की कैद हुई...

घटना के कई दिनों बाद बाबा माँ के साथ बरामदे में बैठे थे.. दोनों में एक समझी-बुझी चुप्पी थी..
तभी बाबा बोले - "जीतू की माँ, अगर इन दो नालायकों के लिए हमने उस समय परिवार और समाज के दबाव में तेरे कोख में पल रही दो कन्याओं का क़त्ल किया था, तो सबसे बड़े गुनहगार तो हम हैं... काश हमारे बेटियाँ होती.."

और दोनों की आँखों से दो बूँद आंसू, धूप से तपती गर्म फर्श पे गिर के उन अजन्मी कन्याओं की तरह मर गए...

फोटो श्रेय: http://www.stolenchildhood.net

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

५०० रूपए


सुधीर और मोहन बहुत ही करीबी दोस्त थे... सर्वसम्पन्न तो दोनों के परिवार थे पर एक जगह जा कर दोनों की राहें अलग हो जाती थीं | दोनों एक ही कंपनी में कार्यरत थे और जैसा कि एक आम युवा-दिल होता है.. दोनों में काफी बहस छिड़ी रहती थी.. बालाओं को लेकर, परिवार को लेकर, देश को लेकर, नेताओं को लेकर..

एक दिन दोनों देश में भ्रष्टाचार के ऊपर विचार कर रहे थे |
सुधीर ने कहा – इन नेताओं को तो एक ही पंक्ति में खड़े करके गोली मार देनी चाहिए | न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी | भ्रष्टाचार समाप्त !!
मोहन ने कहा – नेताओं को छोड़, पहले खुद को सुधार | टैक्स बचाने के चक्कर में जो तू फर्जी बिल दिखाता है, वो तो मत दिखा | वैसे भी तुझे पैसे की कमी नहीं है फिर `२००-`३०० बचाकर क्या हासिल करना चाहता है? भ्रष्टाचार तेरे अंदर से शुरू हो रही है |
सुधीर ने कहा – अरे वो मैं... छोड़ ना... `२००-`३०० से क्या फर्क पड़ता है? वैसे तूने कह ही दिया है तो अब से मैं हर महीने `५०० दान दूंगा.. खुश?
वृत्तांत वहीँ समाप्त हो गया |

कई महीने बीत गए |
मोहन इमानदारी से टैक्स भर रहा है |
सुधीर आज भी फर्जी बिल दिखाकर `२००-`३०० बचा रहा है | `५०० वह अपने बालों को संवारने में दान कर रहा है |

सुधार दूसरों में नहीं खुद में लाओ

एक विडियो देखते जाइये `५०० पर ही है, आशा है अगली बार आप खर्च करने से पहले सोचेंगे:
यह विडियो अंतरजाल से ली गयी है.. यह मेरी खुद की नहीं है.. बनाने वाले को धन्यवाद...



सोमवार, 13 सितंबर 2010

दर्द-निवारक

छोटा सौरव जब चलना सीख रहा था तो कभी-कभी गिर पड़ता, माँ झट उसे गोद में लेकर उसके दर्द को गायब कर देती...

बचपन में जब चोट लगती थी तो सौरव भागा-भागा अपने माँ-बाप के पास आता था.. वो झट से उसका दर्द दूर कर देते...

कम नंबर आने पर जब सौरव उदास हो जाता तो उसके पिता उसे अच्छे से बैठ कर समझाते और उसका दुःख-दर्द झट ख़त्म हो जाता...

कॉलेज में जब किसी प्रोग्राम में सौरव हताश हो जाता तो उसके माँ-पिताजी उसका मनोबल बढ़ाते, उसकी हौसला-अफजाई करते और उसके दर्द को कम कर देते थे...

नौकरी शुरू की तो संसार की छोटी-मोटी सभी परेशानियां अपने माँ-पिताजी के समक्ष रखता और वो झट उसके दर्द को समझते और सही सलाह दे कर उसे दूर कर देते...

शादी होने के बाद जिम्मेवारी बढ़ गयी तो सौरव और परेशान रहने लगा... पिताजी कभी-कभी उसे बुलाते और उसे हर जिम्मेवारी को सही से निभाने की सलाह देकर उसका बोझ हल्का कर देते... उसका दर्द कम करते...

फिर एक दिन सौरव ने पत्नी की सुन ली और माँ-पिताजी को वृद्धाश्रम छोड़ आया.. वह खुद को आज़ाद महसूस करने लगा और खुश था...
पर एक दिन किस्मत ने पल्टी मारी... एक हादसे में उसने अपने बीवी-बच्चों को खो दिया.. 

उसपर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा...

वह भागा-भागा वृद्धाश्रम गया और अपने माँ-बाप को ले आया...

माँ-पिताजी ने निःसंकोच उसके दर्द को अपने में समा लिया और उसके दुःख को हल्का और कम कर दिया...

ज़िन्दगी यूँ ही चल रही है और सौरव को आज भी माँ-बाप सिर्फ और सिर्फ दर्द-निवारक ही लगते हैं...

शनिवार, 4 सितंबर 2010

बदलाव खुद से

साहिल और राहुल, अन्य किसी भी कॉलेज के छात्र की तरह कभी-कभी देश पर चर्चा करने लगते थे..
दोनों बहुत कोसते थे इस देश के प्रणाली को.. इस देश के तंत्र को... कम ही मौके ऐसे आते थे जब वो दोनों देश के बारे में कुछ भी सकारात्मक कहते हों...

एक दिन दोनों एक स्वयंसेवी संस्था में शामिल होने गए और उस दिन उन्होंने झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वालों को देखा... कैसे वो गन्दगी और निरक्षरता में ज़िन्दगी निकाल रहे हैं...
आने के बाद दोनों में फिर से देश की बहस छिड़ी और दोनों ने माना कि बातें करने से कुछ बदलेगा नहीं.. कुछ करने से ही कुछ बदलाव ला सकते हैं जो वो चाहते हैं..
अगले हफ्ते फिर से जाने की बात तय हो गयी...

अगले हफ्ते साहिल ने राहुल को कॉल किया और पूछा कि चल रहा है कि नहीं... राहुल ने बहाना बनाते हुए कहा.. "अरे आज नहीं यार.. एक दोस्त से मिलने जाना है.. अगले हफ्ते चलूँगा पक्का.."
साहिल ने बहस किये बिना मंजिल की ओर अपने कदम बढ़ा दिए और लोगों की मदद करने पहुँच गया...

आज साहिल लोगों की मदद करके बहुत खुश है...  राहुल आज भी अपने दोस्तों से मिलने में लगा है...
आज साहिल देश को सकारात्मकता की ओर ले जाने की बात कर रहा है... राहुल ने देश को भला-बुरा कहने के लिए एक और राहुल ढूँढ लिया है..
फर्क सामने है..

जिसको बदलाव लाना है वो समय और शक्ति दोनों समर्पित कर रहा है..
और जिसके बातें बनाना है वो समय और शक्ति दोनों बेकार की बातों में व्यर्थ कर रहा है...