साभार: गूगल |
हमारी ही तरह राहुल भी सोशल मीडिया का भोगी है, आसक्त है. जो करता है, वहाँ बकता है. लोगों को लगता है कितना बोलता है, हर बात यहाँ खोलता है. कभी फेसबुक तो कभी ट्विटर तो कभी व्हाट्सऐप. हर जगह उसकी मौजूदगी है. करोड़ों-अरबों लोगों की तरह ही वो भी दिन भर बकर बकर करता रहता है.
ऐसा लगता है जैसे सुनने वाले तो बचे ही नहीं, सब बोलने वाले और इज़हार करने वाले ही इस दुनिया में रह गए हैं. अगर बोलना कला है तो सुनना उससे भी बड़ी कला है पर आज की अगड़म-बगड़म ज़िन्दगी में लोगों को विश्वास ही नहीं होता है कि सुनना भी एक कला है क्योंकि उन्होंने तो सिर्फ बकना ही सीखा है.
इस आसक्ति का शिकार हुए राहुल को यह पता ही नहीं चला कि जो वो सोशल मीडिया और फ़ोन पर तरह तरह के ऐप्स से दुनिया से जुड़ा हुआ है, दरअसल वह इस सिलसिले में खुद से ही कट चुका है. नौकरी करने, घर चलाने और सोशल मीडिया के भ्रमित दिखावे की बराबरी करने के चक्कर में कब वह अन्दर से टूट गया यह उसे एक दिन पता चला जब वह अपने कमरे में अपने लैपटॉप के सामने बैठा था. अचानक उसे अपने भविष्य की चिंता होने लगी कि वो करना क्या चाहता है, कर क्या रहा है और भी न जाने कैसे-कैसे उटपटांग सवाल.
ऐसा पहली बार हुआ था जब वो खुद का विश्लेषण कर रहा था और करते करते बेहद डर गया था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह किससे बात करे, क्योंकि यहाँ सुनने वाला तो कोई है ही नहीं, सिर्फ बोलने वाले लोग ही बचे हैं. वह अपने फेसबुक की लिस्ट खंगालता है, ट्विटर पर अनजान दोस्तों के फेहरिस्त जांचता है और फ़ोन पे अनगिनत नंबरों को टटोलता है पर एक ऐसा इंसान नहीं ढूंढ पाता जो सिर्फ और सिर्फ उसे सुने, कुछ कहे नहीं, अपनी सलाह न थोपे. उसका मन उदास हो जाता है और वह सब कुछ बंद करके सोने की नाकाम कोशिश करता है.
ऐसा कई दिन चलता है. कई चीज़ें आप अपने घरवालों से नहीं अपितु अपने दोस्तों के साथ साझा करते हैं पर राहुल तो इस वैकल्पिक जद्दोजहद में एक दोस्त भी न बना पाया था. सब पानी के बुलबुले की तरह इधर उधर उड़ते दिखे और अंततः मानसिक तनाव, नौकरी के दबाव और ज़िन्दगी से बिखराव ने राहुल के दिमाग को चरमरा दिया और उसे उदासी (डिप्रेशन) के गड्ढे में गिरा दिया.
एक हँसता, बोलता, खिलखिलाता नौजवान भरी जवानी में उदासी का शिकार हुआ क्योंकि उसको सलाह देने वाले तो बहुत थे पर सुनने वाला एक भी नहीं.
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