नया क्या?

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

मौत से ज़िन्दगी

मनोज, एक सीधा-साधा मेहनती इंसान... कॉलेज से प्रथम श्रेणी में स्नातक और फिलहाल नौकरी पेशा..
घर पर माँ, एक छोटा भाई और एक छोटी बहन का पूरा बोझ उसके ऊपर..

प्रथम श्रेणी से पास होने के बावजूद एक मामूली नौकरी मिली थी बड़े शहर में.. कुछ से अपना गुज़ारा चलाता और बाकी घर पर भेजता..
बहन की शादी और छोटे भाई के लिए एक दुकान खोल के देने की अंतर-इच्छा थी पर इस नौकरी के भरोसे संभव नहीं था..

कुछ साल बीते तो सर पर जिम्मेवारी मार करने लगी.. अब थोड़ा तंग-तंग रहने लगा था.. और ना ही उसकी काबिलियत के मुताबिक़ उसे नौकरी मिल रही थी...
शहर के दोस्त सिर्फ शहरी थे, दिली नहीं.. किसी से अपना दुःख नहीं बाँट पाता और दिन-ब-दिन परेशानी से घिरता जा रहा था...
कभी-कभी अखबार पढ़ता तो पता चलता कि फलां दुर्घटना में पीड़ित के परिवार को ५ लाख मिले.. फलां बम धमाके में मृत के परिजनों को ७ लाख मिले..

सोचता, कि कभी उसके साथ भी ऐसा हो जाए तो इतने पैसों से उसकी अंतर-इच्छा शायद पूरी हो जाए.. आत्महत्या के लिए कोई पैसे नहीं मिलते थे पर सरकारी दुर्घटना में ज़िन्दगी को चंद पैसों में तोला जाता था जो कि मनोज के परिवार के लिए बहुत था...

पर उसे क्या खबर थी कि यह सोच एक दिन सच्ची खबर में बदल जाएगी..
घर लौट रहा था और ट्रेन दुर्घटना में ज़िन्दगी ने मौत को गले लगाया और फिर सरकार ने मृत के परिवार को ५-५ लाख रूपए धनराशी देने की घोषणा की...

आज एक मौत ने तीन जिंदगियों को जान दी थी पर क्या यही एक रास्ता था? क्या ज़िन्दगी, मौत की मोहताज हो गयी थी?
शायद मनोज के लिए इसके अलावा कोई विकल्प न था और उसका उत्तर "हाँ" ही होता...

बुधवार, 14 सितंबर 2011

तेरे-मेरे बीच

हिन्दी दिवस फिर से आया है आज.. मैंने सोचा कि इस हिन्दी दिवस पे कुछ नया किया जाए.. जो पहले कभी नहीं किया हो... अपने पोस्ट "तीन साल ब्लॉगिंग के" में मैंने लिखा था कि श्रृंगार रस को छोड़कर हर रस का आनंद लिया है मैंने अपनी लेखनी में.. तो इस बार हिन्दी दिवस पर कुछ नया करने की फितरत में अपनी कविता में श्रृंगार का श्रृंगार कर रहा हूँ.. मैं इस रस में नौसिखिया हूँ.. सभी ज्ञानी जनों से माफ़ी और राय दोनों की अपेक्षा है.. आपकी हर राय उत्साहवर्धन का काम करेंगी.. जय हो!

वो लरज़ते हुए होंठों का धीमे से ऊपर उठ जाना
और मेरा उस इशारे को बेबाक समझ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


वो भीड़ के शोर में सब कुछ गुम जाना
तेरा, मेरी आँखों से एक किस्सा पढ़ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


वो कई दिनों की चुप्पी का सध जाना
उस खामोशी में से संगीत निकालना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा मेरे हाथों को धीरे से छोड़ जाना
उस छोड़ने में तेरी रूठने की अदा पढ़ जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन आँखों को धीमे से बंद कर लेना
उसमें तेरी हामी को पढ़ लेना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा मेरे सर को धीमे से चूम लेना
उस स्पर्श में तेरे प्यार को जी जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन आखों में शरारत का भर आना
उस शरारत में तेरा बचपन देख जाना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...


तेरा उन सुर्ख आँखों से मोतियाँ बिखेरना
मेरा उन मोतियों को सहेज के समेटना
बस तेरे-मेरे बीच की बात है...

और जाते-जाते एक ख़ुशी की बात... मेरी और मेरी माँ की कुछ कविताएँ "अनुगूंज" में प्रकाशित हुई हैं जिसकी संपादिका "श्रीमती रश्मि प्रभा जी" हैं... उनको विशेष आभार और बाकी सभी लोगों का जिसका इस पुस्तक को प्रकाशित करने में सहयोग रहा...
यह मेरे, मेरे परिवार और मेरे दोस्तों के लिए बहुत ही ख़ुशी की बात रही जिसका आप सब भी हिस्सा हैं..