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शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

दो दिन ज़िन्दगी के

याद है वो कहावत, "चार दिन की है ये ज़िन्दगी.."? याद तो होगा ही, पर मुझे लगता है कि समय आ गया है इस कहावत को बदलने का। अब क्या कहें, समय और समाज में जो बदलाव आये हैं उसमें तो ये बदली हुई पंक्तियाँ ही सटीक लग रही हैं "दो दिन ज़िन्दगी के.."

कितनी आसान थी उस छोटे से शहर में अपने छोटे ख़्वाबों को चुनते, एक दूसरे से बुनते हुए वो साधारण सी ज़िन्दगी। आह! सरल, सुखी और समृद्ध सा अलसाया हुआ जीवन। मुझे याद नहीं आता कि कभी हम हफ्ते के उन दो दिनों का इतने बेसब्री से इंतज़ार करते हों जितना आज करते हैं। बड़े शहर में आ कर सपने तो बड़े हो गए पर समय? समय दिन-ब-दिन छोटा होता जा रहा है।

सुबह से शाम कब हो जाती है, AC के डब्बे में बैठकर पता ही नहीं चलता। मौसम को आखिरी बार बदलते हुए कब देखा था पता नहीं। अब तो सिर्फ सर्दी-जुखाम-बुखार से ही बदलते मौसम का अंदेशा होता है। 5 दिन कब हवा बन के नज़रों के सामने से गुज़र जाती है ये खबर कानों को भी नहीं मिलती। खबर बस यही गरम रहती है कि "भाई, Saturday-Sunday आ गया"! ऐसा लगता है मानो हम इन दो दिनों के सेवक बन गए हैं। 5 दिन किसी और की सेवा करते हैं और 2 दिन शनि-रवि की।

कैसी घिसती हुई सी ये ज़िन्दगी हो गई है जो
हर हफ्ते उन दो दिनों की मोहताज हो जाती है,
हर हफ्ते वही दो दिन जिसमें हम जीने की कोशिश करते रहते हैं,
वही दो दिन जब हम अपने आसपास एक छलावे भरा जाल बुनकर समझते हैं कि इसमें हम जी लेंगे,
वही दो दिन जब हम अपने परिवार के साथ कुछ वक़्त बिताने की कोशिश करते हैं!

पर सोमवार आते ही रटते वही हैं कि "यार ये दो दिन कब उड़ गए पता ही नहीं चला"। सवाल ये है कि क्या हम अपनी ज़िन्दगी को बस उड़ते हुए ही देख रहे हैं या असल में जी भी रहे हैं?

क्या ज़िन्दगी का मकसद बहुत पैसे कमाना और उन दो दिनों में उनको बेहिसाब खर्च कर देना ही है? सुबह 8 से शाम की 8 बजाकर अगली सुबह की उधेढ़बुन में ही मचलते रहना, क्या यही है वो ज़िन्दगी जिसकी आप तलाश कर रहे हैं? सवाल तो बहुत बड़ा है पर जवाब इससे भी बड़ा होगा और यह जवाब हमें खुद के गिरेबान में झांककर ही मिलेगा।

ज़िन्दगी आसान तो नहीं ही है पर कम से कम इसे उलझन तो न बनाएं। 2 दिन की छुट्टी मिलेगी या नहीं, यही परेशानी आपको महीनों पहले खाने लगती है। आज घर जल्दी चला जाऊँ क्या? इस बार सैलरी कितनी बढ़ेगी? मेरा बॉस मेरे बारे में क्या सोचता है? मैं ऐसा क्या करूँ की प्रमोशन जल्दी हो जाए? आज हम वो 5 दिन इन्हीं सब सवालों से घिरकर निकाल रहे हैं। किसी ने सच ही कहा है, हम सादी कमीज़ और काली पतलून डाले हुए, हैं तो बंधुआ मजदूर ही। गले में एक कॉर्पोरेट पट्टा डालकर हम बन जाते हैं पूर्णतः एक कॉर्पोरेट कुत्ता!

अपनी जीवन की भीतरी अभिलाषाओं का खून करके, उसका गला घोंटकर, अपने ज़मीर को दबाकर, अपने भीतर के बचपन को मारकर, सलीकेदार बने रहकर, समाज की सीमाओं में बंधकर, एक-एक दिन दासों की तरह काटकर, अपनी उँगलियों को कीबोर्ड पर घिसकर आखिर कब तक हम अपने आपको धोखा देते रहेंगे? कभी सोचा है कि आखिरी साँस लेते वक़्त ये धोखा हमें अपनी मौत से पहले ही मार देगा? कहावत तो बदलते रहेंगे। कभी चार दिन, तो कभी दो दिन की हो जाएगी ज़िन्दगी पर आपके पास तो सिर्फ एक ही ज़िन्दगी है। आप कब इसे हर दिन, हर पल, हर साँस के साथ जीने की ललकता दिखाएँगे? जवाब आप ही के अन्दर है। आने वाले Saturday-Sunday में खोजने की कोशिश कीजियेगा!

शनिवार, 30 मई 2015

खामोश राहें

कितनी खूबसूरत अनुभूति है ये खामोशी। दिन-ब-दिन बढ़ते शोरगुल और मचलती दुनिया में खामोशी अपना एक अलग स्थान रखती है। ये केवल मैं ही नहीं, दुनिया के तमाम लोग समझते होंगे जब अपने आसपास एक सन्नाटा पसर जाता है तो कैसे हम अपने में खो जाते हैं। जब कई दिनों तक ज़िन्दगी की उधेड़बुन में अपना जीवन बहुत तेज़ी से गुज़रता हुआ दिखता है तो क्या ऐसा नहीं लगता कि पहाड़ों पे चला जाए, कुछ दिन मौन-व्रत रखा जाए, ज़िन्दगी को धीमे किया जाए? क्या ऐसा नहीं लगता कि आप अपने घर के छत पर खड़े हो कर शहर के सन्नाटे को सुनने के बजाय देख सकें? इस बात से हम कितने बेखबर जीए जाते हैं कि खामोशी में कितनी शक्ति है, उसमें कितनी ऊर्जा है जो आपके जीवन में, आपके मन में चल रहे उथल-पुथल को, उस सारे बवंडर को, अपनी उसी ऊर्जा से तहस नहस कर देता है।

इस ठहराव के कई और पहलू भी हैं। एक गायक ने मंच पर चढ़ते ही कहा कि गाना ख़त्म होने के करीब १० सेकंड बाद ही ताली बजाएँ। उस १० सेकंड की खामोशी में ही उस गीत का असली रस छुपा है। तबसे मैं कोशिश करता हूँ कि हर गाने को संपूर्णतः सुनूँ और सच मानिए, अब गीतों को सुनने का मज़ा कुछ और ही हो गया है। पश्चिमी संगीत में ठहरावों का बहुत महत्त्व है पर भारतीय संगीत में मौन की उतनी ही महत्ता मैंने कम देखी है। परन्तु कई फ़िल्मी गीतों में हम गाने के बीच में खामोशी को महसूस करते हैं और उस ठहराव के बाद जब पहला सुर लगता है तो मानों दिल को उखाड़ते हुए निकल जाए। पुराने गीतों में 'ऐ दिल-ए-नादान' में आपने इसे महसूस किया होगा। इस खामोशी से अपने दिल को बिन्धवाने के लिए नए गीतों में एक उदाहरण 'हुस्ना' गीत का आता है (पियूष मिश्रा का लिखा/गाया) जो आपको ज़रूर सुनना चाहिए।

गीतों की बात के बाद खामोशी की हमारे निजी जीवन में भी ज़बरदस्त सार्थकता है। कई दफे किसी वार्तालाप में आपकी खामोशी की आपके शब्दों से ज्यादा ज़रूरत होती है। किसी के टूटे हुए दिल को चुप हो के सुनना, किसी के ज़िन्दगी के दर्द को अपनी चुप्पी की आगोश में लेना भी बहुत बड़ी कला है। कम-स-कम जो माहौल आजकल चल पड़ा है जहाँ बोलने वाले लोग ज्यादा और सुनने वाले श्रोता कम हो चले हैं, वहाँ तो यह कला और भी दुर्लभ हुआ जा रहा है। सोशल मीडिया ने हमें बोलना और, और बोलना ही सिखाया है। इसने हमारी श्रवण शक्ति को निर्बल बना दिया है। सबको अपनी बात, बस कहनी है। कोई सुनना नहीं चाहता और यही एक बड़ा कारण है कि हमारे आपसी रिश्तों में भी इसका बेहद नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। चाहे बात फेसबुक की करें, ट्विटर की करें या वाट्सऐप की, हर जगह लोग चौबीसों घंटे चटर-चटर करते पाए जाते हैं। इसी नकारात्मकता का एक बहुत ही बुरा परिणाम कुछ दिनों पहले सुनने को मिला जिसमें मेरे ही कॉलेज के एक लड़के ने ख़ुदकुशी कर ली क्योंकि वह निराशा और उदासी का शिकार हो गया था। सोशल मीडिया पे वह मज़ाकिया और खुश माना जाने वाला इंसान था पर असल ज़िन्दगी में कुछ और ही चल रहा था। शायद उसको सही में सुनने वाला एक भी इंसान न मिला। आज ये एक बहुत बड़ा सवाल है हम सबके सामने कि हम अपनी वाचालता और चुप्पी के बीच एक संतुलन कैसे बनाते हैं।

खामोशी हमारे लिए एक उपहार है जिसका मूल्य हम हर बीतते दिन के साथ भूलते जा रहे हैं। जब तक हम खामोशी से भी बात करना नहीं सीख जाएँगे तब तक हम परिपक्वता का केवल ढोंग कर सकते हैं। कितना सुकून मिलता है जब हम किसी फ़िल्म में नायक-नायिका को आँखों से अपने प्यार का इज़हार और बातें करते हुए देखते हैं। ये खामोशी ही है जो आपके रिश्तों की नींव को मज़बूत करती है। वैसे जाते-जाते बस एक ही बात कहना चाहूँगा। अगर ऊपर की सारी बात हवा हो गई हों तो याद करिये जब किसी दूसरे के घर पर रहते हुए किस खामोशी और चुप्पी से भी आपके माँ-बापू आपकी खबर ले लेते थे! :) आह क्या दिन थे!
अब जब तक आप अपनी कोई टिप्पणी इस पोस्ट पर छोड़ कर जाते हैं, तब तक मैं अपने मन को मौन कर बचपन के किसी एक ऐसी घटना में खो लूँ।

वैसे मुझे बहुत देर से याद आया कि पिछले महीने (16/4) मुझे ब्लॉगिंग करते हुए 7 साल हो चुके हैं. आप सभी का आभार! :)