ऐसा कब होता है जब आप एक भ्रामक अवस्था में धकेले जाते हों और वहीँ पर रह जाना चाहते हो? मेरे साथ तो ये तब होता है जब मैं वो फिल्में देखता हूँ जो असलियत को आपके चेहरे पर दे मारती है। ऐसी फिल्में जो सिर्फ परदे पर एक बनावट है पर हज़ारों जिंदगियों की सच्चाई। ऐसी फिल्में जिसे इस सच्चाई का डर नहीं कि वो पैसा कमाएगी कि नहीं पर उसे इस बात का गर्व है कि वो लोगों को धरातल पर रखेगी।
वैसी ही एक कला-फिल्म, "आँखों देखी" अभी देखी। ऐसा महसूस हो रहा था मानो कि मैं फिल्म के किरदारों का हिस्सा बन चुका हूँ। डेढ़ घंटे के लिए मेरी सच्चाई उस फिल्म की कहानी थी, उस फिल्म के लोग। ऐसी फिल्में देख कर मन रोमांचित हो उठता है और दिल चाहता है कि वह कहानी चलती रहे, निरंतर, अबाध, एकटक!
मैं इस फिल्म की समीक्षा नहीं कर रहा हूँ, मैं तो सिर्फ यही समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि भौतिकवादी बाज़ार में सच को दिखाने वाले लोग भले ही कम हों पर जब भी वो सच आता है तो दिल को सुकूं सा मिलता है कि कला अभी भी सर्वोपरि है, उसे रुपयों में नहीं खरीदा जा सकता, वो बिकाऊ नहीं है। उन बनावटी फिल्मों से मन और भी उचट जाता है जब एक कला-केन्द्रित फिल्म मेरे आँखों के सामने से गुज़रती है।
पर एक सिद्धांत यह भी है कि मनुष्य का मन इतना भीरु और डरपोक है कि वो सच्चाई का सामना करने से डरता है और यही एक कारण है कि जब उसे फिल्मों के माध्यम से मिथ्या परोसा जाता है तो वह बड़ी रूचि से उसे चबाता है। ये फिल्में मिठाई की तरह है जिसे खाने पर एक सामान्य मनुष्य को लगता है कि बस इसका स्वाद सदा-सदा के लिए उसके जीभ पर बना रहे, पर ऐसा हो नहीं पाता। कला-केन्द्रित फिल्में करेले की तरह होती है क्योंकि वो हमें सच से सामना करवाती हैं और सच हमेशा कड़वा होता है। ऐसी फिल्मों में ना ही एक अजेय नायक होता है और ना ही सिर्फ प्रेम पाने को आतुर एक नायिका। मुझ जैसे, आप जैसे, किसी सामान्य इंसान को उठा लीजिये, इन फिल्मों के किरदार हमारी जिंदगियों से मिलते-जुलते से ही होते हैं। हम जिस ज़िन्दगी को जी रहे हैं ये कला केन्द्रित फिल्में उसी ज़िन्दगी की निरंतरता है और इसलिए यह करेला हमें उतना कड़वा नहीं लगता। वहीँ पर जो मिथक है, जो असत्य है, जो केवल हमारे मन का भ्रम है, ऐसी फिल्में हमें हमारी स्वाभाविक जिंदगियों से निकालकर एक कल्पित स्तर पर ला कर फेंक देती है जिससे वापस सच्चाई की धरा पर गिरना बेहद दर्द देने वाला होता है।
२ तरह के लोग होते हैं।
एक जो इस कल्पित दुनिया का हिस्सा बनकर जीना चाहता है। वह इस बात से घबराता है कि उसके सामने सत्य आ कर न खड़ा हो जाए। उसका सच दरअसल इस दुनिया के द्वारा परोसा हुआ झूठ है। उसे ज़्यादातर ऐसी ही फिल्में पसंद आएंगी जो उसके झूठ को और विस्तृत करेंगे, जो उसे उस झूठ में ही बांधे रखेंगी, जो उसे सत्य का सामना करने से बचाएंगी।
वहीँ दूसरी ओर ऐसे लोग होते हैं जो नित्य यह खोजते रहते हैं कि आखिर सत्य क्या है। उन्हें इन मिथक चलचित्रों से घनिष्ठ द्वेष रहता है। वो अपनी ज़िन्दगी में, अपने आसपास घट रही घटनाओं से, लोगों से, चलचित्रों से, किसी भी चीज़ में केवल सत्य को खोजने की कोशिश करते हैं और ऐसे ही लोगों के लिए "आँखों देखी", "शिप ऑफ़ थिसियस" जैसी कला-केन्द्रित फिल्में बनाई जाती हैं। पहली श्रेणी के लोग ना ही ये फिल्में देख सकते हैं और ना ही इन्हें समझ सकते हैं।
वैसे भी भारत इतना बड़ा देश है और यहाँ के लोगों की मांगें इतनी विस्तृत हैं कि यहाँ सब चलता है। निरर्थक बातें वायरस की तरह फ़ैल जाती हैं और अर्थपूर्ण बातों को गला कोख में ही घुट जाता है। और चूँकि भारत की आबादी इतनी ज्यादा है, इसलिए यहाँ पर हर तरह की फिल्में भी चल जाती हैं।
खैर यह तो आप ही निश्चित करेंगे की आपके जीवन का सत्य क्या है। क्या आपका सत्य दुनिया द्वारा परोसा गया झूठ है या फिर आप अपने सत्य का निर्माण खुद, अपने दम पर करना चाहते हैं। फिल्में तो एक जरिया है ज़िन्दगी को अपने दृष्टिकोण से देखने का और मेरा कोण आपके कोण से अलग ही होगा क्योंकि आपकी "आँखों देखी" और मेरी "आँखों देखी" में बहुत फर्क हो सकता है :)
वैसी ही एक कला-फिल्म, "आँखों देखी" अभी देखी। ऐसा महसूस हो रहा था मानो कि मैं फिल्म के किरदारों का हिस्सा बन चुका हूँ। डेढ़ घंटे के लिए मेरी सच्चाई उस फिल्म की कहानी थी, उस फिल्म के लोग। ऐसी फिल्में देख कर मन रोमांचित हो उठता है और दिल चाहता है कि वह कहानी चलती रहे, निरंतर, अबाध, एकटक!
साभार: विकिपीडिया |
पर एक सिद्धांत यह भी है कि मनुष्य का मन इतना भीरु और डरपोक है कि वो सच्चाई का सामना करने से डरता है और यही एक कारण है कि जब उसे फिल्मों के माध्यम से मिथ्या परोसा जाता है तो वह बड़ी रूचि से उसे चबाता है। ये फिल्में मिठाई की तरह है जिसे खाने पर एक सामान्य मनुष्य को लगता है कि बस इसका स्वाद सदा-सदा के लिए उसके जीभ पर बना रहे, पर ऐसा हो नहीं पाता। कला-केन्द्रित फिल्में करेले की तरह होती है क्योंकि वो हमें सच से सामना करवाती हैं और सच हमेशा कड़वा होता है। ऐसी फिल्मों में ना ही एक अजेय नायक होता है और ना ही सिर्फ प्रेम पाने को आतुर एक नायिका। मुझ जैसे, आप जैसे, किसी सामान्य इंसान को उठा लीजिये, इन फिल्मों के किरदार हमारी जिंदगियों से मिलते-जुलते से ही होते हैं। हम जिस ज़िन्दगी को जी रहे हैं ये कला केन्द्रित फिल्में उसी ज़िन्दगी की निरंतरता है और इसलिए यह करेला हमें उतना कड़वा नहीं लगता। वहीँ पर जो मिथक है, जो असत्य है, जो केवल हमारे मन का भ्रम है, ऐसी फिल्में हमें हमारी स्वाभाविक जिंदगियों से निकालकर एक कल्पित स्तर पर ला कर फेंक देती है जिससे वापस सच्चाई की धरा पर गिरना बेहद दर्द देने वाला होता है।
२ तरह के लोग होते हैं।
एक जो इस कल्पित दुनिया का हिस्सा बनकर जीना चाहता है। वह इस बात से घबराता है कि उसके सामने सत्य आ कर न खड़ा हो जाए। उसका सच दरअसल इस दुनिया के द्वारा परोसा हुआ झूठ है। उसे ज़्यादातर ऐसी ही फिल्में पसंद आएंगी जो उसके झूठ को और विस्तृत करेंगे, जो उसे उस झूठ में ही बांधे रखेंगी, जो उसे सत्य का सामना करने से बचाएंगी।
वहीँ दूसरी ओर ऐसे लोग होते हैं जो नित्य यह खोजते रहते हैं कि आखिर सत्य क्या है। उन्हें इन मिथक चलचित्रों से घनिष्ठ द्वेष रहता है। वो अपनी ज़िन्दगी में, अपने आसपास घट रही घटनाओं से, लोगों से, चलचित्रों से, किसी भी चीज़ में केवल सत्य को खोजने की कोशिश करते हैं और ऐसे ही लोगों के लिए "आँखों देखी", "शिप ऑफ़ थिसियस" जैसी कला-केन्द्रित फिल्में बनाई जाती हैं। पहली श्रेणी के लोग ना ही ये फिल्में देख सकते हैं और ना ही इन्हें समझ सकते हैं।
वैसे भी भारत इतना बड़ा देश है और यहाँ के लोगों की मांगें इतनी विस्तृत हैं कि यहाँ सब चलता है। निरर्थक बातें वायरस की तरह फ़ैल जाती हैं और अर्थपूर्ण बातों को गला कोख में ही घुट जाता है। और चूँकि भारत की आबादी इतनी ज्यादा है, इसलिए यहाँ पर हर तरह की फिल्में भी चल जाती हैं।
खैर यह तो आप ही निश्चित करेंगे की आपके जीवन का सत्य क्या है। क्या आपका सत्य दुनिया द्वारा परोसा गया झूठ है या फिर आप अपने सत्य का निर्माण खुद, अपने दम पर करना चाहते हैं। फिल्में तो एक जरिया है ज़िन्दगी को अपने दृष्टिकोण से देखने का और मेरा कोण आपके कोण से अलग ही होगा क्योंकि आपकी "आँखों देखी" और मेरी "आँखों देखी" में बहुत फर्क हो सकता है :)
कोई भी देश या समाज छोटी-छोटी बातों से बड़ा बनता है...सच्चाई-ईमानदारी-निष्ठा बड़ी चीज़ें हैं...पर इन्हें पाने का तरीका बहुत सीधा और सरल है...गलत चीज़ों को हमने इस हद तक अपने जीवन में उतार लिया है कि सही चीज़ें गलत लगने लगीं हैं...फ़िल्में वही दिल को छूतीं हैं जो सच के करीब होतीं हैं...इसीलिए फिल्म हैं हक़ीक़त नहीं...
जवाब देंहटाएंसटीक!
हटाएंकल 22/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
धन्यवाद!
हटाएंबहुत बढ़िया
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