सोया था मैं टुन्न [अरे साहब खाना खा कर (क्या सोच रहे हैं आप ??)] हो कर,
खोने को किसी की यादों में...
पर कमबख्त कुछ समाचार ने,
लगा दी है आग यादों में...
क्या खोने में सोये थे,
और किस उलझन में खो गए हैं...
कोई तो कुछ उपाय बताओ,
अजीब मुसीबत में फंस गए हैं...
सुबह-सुबह अखबार पढ़ा था,
छ्ठाँ दिन हड़ताल का...
आज भी वही जारी है,
न काम का न काज का...
जैसे पहले बहुत स्वादिष्ट था,
खाना हमारे मेस का...
अब हड़ताल का मिला था बहाना,
सब माया है गैस का...
सोते-सोते इसी उधेड़ भुन में,
करवटें बदल रहे थे बार-बार...
की कल क्या होगा राम-भरोसे,
क्या रोटी मिल पाएगी चार ???
क्या कल नसीब होगा
वो बिन आलू का आलू-परांठा ??
या फ़िर से वही मोटी रोटी...
मैदा या आटा ??
सोचते-सोचते परेशान हो,
बेचैनी ने सुला दिया...
ऊपर से कोड़े और पड़ें,
ठण्ड ने तो रुला ही दिया...
सुबह-सुबह [हमारी सुबह - ध्यान दें !!] पड़ोसी ने,
ज़ोर से दरवाज़ा तड़-तड़ाया...
हम उठे हड़बड़ा के और कहा,
मैंने नहीं खाया, मैंने नहीं खाया...
उसने कहा - 'अरे बेवकूफ,तुने सच ही कहा...
गलती उनकी नहीं जिन्होंने हड़ताल करवाया,
गलती तो तेरी ही है,
जो इस नींद के चक्कर में,
नाश्ता क्या, दिन का खाना भी छोड़ आया ...
bahut badiya..aisey soya nahin kartey ki sapno se pet bharnaa padey.
जवाब देंहटाएंवो बिन आलू का आलू-परांठा ??
या फ़िर से वही मोटी रोटी...
मैदा या आटा ??
sabhi hostels ka ek hi haal hota hai shayad!