अभी अभी ऑडी हो कर आ रहा हूँ...
बस यूँ ही चल पड़ा था... देखने कि कैसी तैयारियां चल रही हैं ... कल संस्थापक दिवस पर होने वाले वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम की...
अब साहब यूँ समझ लीजिये की कुछ छुपे हुए कलाकार [कलाकार ?? जाने भी दो ...] अपने आपको किसी तरह उस बिल से निकालने की जहोज्जत में जुटे हुए हैं...या फ़िर बाकी लोगों की मेहनत से.. जो भी कह लीजिये..सब बराबर है...
पता नहीं मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है ओर साथ ही साथ दुःख भी हो रहा है...
गुस्सा इसलिए कि जिस दिन इतने सारे प्रादेशिक संगठन अपनी अपनी संस्कृति की झलक दिखाने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं वहां वो पता नहीं किस संस्कृति को दिखाना चाहते हैं...
शायद अब यह सब उनके लिए टाइम पास हो गया है...संस्कृति शब्द सिर्फ़ ओर सिर्फ़ एक मजाक बन कर रह गया है...
अगर आप अपने प्रदेश की झलक लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं तो आपके पास दो ही विकल्प हैं ...
एक...या तो आप उसे करने में अपनी जान झोंक दें या ....
दो... उससे छेड़-छाड़ बिल्कुल ना करें |
पर जहाँ तक अभी के आखिरी रियाज़ की बात है, मुझे काफ़ी कम ही लोगों में इसके प्रति गंभीरता नज़र आई...
लोगों को यह बस एक मस्ती का जरिया ही ज़्यादा लग रहा था...
लोग बस स्टेज पर चढ़ने के इच्छुक हैं लेकिन शायद उन्हें यह नहीं पता की इस स्टेज पर चढ़ने के लिए जो सही में मेहनत करते हैं उन्हें इसकी गरिमा के बारे में पता है..वो इसकी इज्ज़त करना जानते हैं... उन्हें पता है की जब आप इस मंच पर होते हैं तो वो समय हँसी मज़ाक का नहीं होता है... पर आपकी सच्ची मेहनत को सही ढंग से प्रस्तुत करने का है... यह मैं इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि मैंने इस मंच पर चढ़ने के लिए वाकई मेहनत की है ओर लोगों को तत्परता से मेहनत करते हुए देखा भी है...
बड़े शर्म की बात है कि कुछ आलसी लोगों के कारण कुछ वाकई में मेहनत करने वालों को भी दो गालियाँ खानी पड़ती हैं... कहते हैं ना - "गेहूं के साथ घुन भी पिसता है"...
ओर जब मैं कुछ ऐसे लोगों का इन सब चीज़ों के प्रति विपरीत रुझान देखता हूँ तो गुस्सा इतना आता है मानो यह चाह रहा हूँ की अभी इनको इस उच्च मंच से विहीन कर दूँ... उनको उस आलस का एहसास तभी होता है जब लोग उनके ख़िलाफ़ नारेबाजी करते हैं.. साहब जब आप मेहनत करना ही नहीं चाहते हैं तो तालियाँ कहाँ से बटोरेंगे ??
जिस तरह से कुछ प्रादेशिक संगठन अपनी संस्कृति को प्रस्तुत कर रहे थे [या कल करने वाले हैं] उसे देख कर बड़ा दुःख हुआ की कल ये अपने से छोटों को ये दिखाएंगे अपनी संस्कृति के बारे में ?? ..... या फ़िर अपने बुजुर्गों को ये तसल्ली देंगे की हमारे हाथों में यह सुरक्षित है ?? ऐसा लग रहा था जैसे कुछ कंजर मंच पर चढ़कर नाटक कर रहे हैं...
दुःख इस बात का भी है कि इस बार भी [पिछले साल भी किसी कारणवश यह सम्भव नहीं हो पाया था] मैं यहाँ पर अपनी प्रस्तुति नहीं दे पाऊंगा... पर ठीक है.. हर जगह फूल तो नहीं मिलेंगे ना ? कहीं कांटें ही सही....
वैसे आप मेरा यह गाना यहाँ से डाउनलोड करके सुन सकते है... आशा करता हूँ आपको अच्छा लगेगा...
कल मैं देख कर आता हूँ .. लोग कितनी गंभीरता से अपनी संस्कृति का बिगुल बजाते हैं...
अगर सम्भव हुआ तो ज़रूर बताऊंगा... मैंने तालियाँ बजाई या गालियाँ..
तब तक के लिए नमस्कार....
जय बिट्स !!!
It wasn't that bad either. I agree some assocs went a bit too irrelevant in terms of choosing the songs, but otherwise it was a decent show.
जवाब देंहटाएं... प्रसंशनीय।
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