नया क्या?

बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

भ्रष्ट ज्ञान

यह लेख ६ अक्टूबर २०१२ को जनसत्ता में छपा था। ई-पेपर पढने के लिए यहाँ क्लिक करें। (संतोष त्रिवेदी जी का फिर से एक बार धन्यवाद!)

"ज्ञानी", एक ऐसा शब्द है जिससे हम-आप खुद को पढ़े लिखे समझने वाले लोग समझते हैं कि अच्छी तरह से समझते हैं, भांपते हैं। पर क्या सच में आप इतने ज्ञानी हो गए हैं कि उसका अर्थ भली-भांति समझते हैं? ये बहुत ही गहन शब्द और विषय है जो कई हफ़्तों से मेरे मन-मंथन को छलका रहा है।

बचपन में सुना था "अर्ध ज्ञान बहुत खतरनाक होता है"। इतने से जीवनकाल में मैंने यह काफी जगह देख लिया है कि आधा ज्ञान इंसान को पूरा खा सकता है। और इंसान तो क्या, पूरे समाज, प्रजाति तकातक को ख़त्म कर सकता है।

और पता नहीं कहाँ या कैसे पिछले कुछ दिनों से एक और बात मन में घर कर गयी है "ज्ञान भ्रष्ट करता है"। शायद आपने सुना भी हो, पर यह बात भी सटीक है कि अधूरा ज्ञान और अधिक ज्ञान, दोनों ही किसी भी इंसान के लिए हानिकारक हैं।

अभी कुछ दिनों पहले मैं एक दोस्त के साथ किसी संगीत कार्यक्रम में गया। काफी अच्छा लग रहा था पर मुझे कहीं कहीं सुर छूटते हुए नज़र आ रहे थे। पर मेरा दोस्त संगीत में मगन था। उसे ये त्रुटियाँ समझ नहीं आ रही थी और इसी वजह से वह खुश था। चूँकि मैं शास्त्रीय संगीत सुनता और सीखता हूँ, इसलिए मेरा मन विचलित था और वहीँ मेरा दोस्त उसी संगीत में खुश! तब मुझे एहसास हुआ कि उसके संगीत में कम ज्ञान होने से फायदा हुआ और वह खुश है और मैं थोड़ा-बहुत जानकार भी उसी संगीत से उतना खुश नहीं!

एक और छोटा सा उदाहरण देता हूँ। जब हम छोटे बच्चे थे, तब कोई भी छोटी सी बात, चाहे वो किसी चीज़ का अचानक से गिरना या किसी अपने का अजीब सा चेहरा बनाना, हमारे चेहरे पे कितनी हँसी लाती थी। और आज एक पल है जब हमें हँसने के लिए भी बहाने ढूँढने पड़ते हैं। क्या यह ज्ञान नहीं है जिसने हमारी हँसी को भ्रष्ट किया है? चीज़ों को समझने में हम माहिर हो गए हैं, पर क्या जीने में महारत कभी हासिल कर पाएंगे?

ज्ञान पाना आसान है पर उसको खोना बहुत ही मुश्किल। दिन-प्रतिदिन हमारी समझ तो बढ़ रही है पर हमारी सोच घट रही है। ज्ञान ने हमारे रहन-सहन को इतना भ्रष्ट किया है कि ज़िन्दगी की छोटी-बड़ी आम बातें भी आजकल हमारे समझ के परे हो गयी हैं। कभी कभी सोचता हूँ कि हमारी शिक्षा पद्धति हमें जीने के अलावा सब कुछ सिखा रही है।

क्या हमें ज़रूरत है एक नयी सोच की? एक नयी पद्धति की? एक नयी दिशा की? क्या हम कभी ऐसा ज्ञान हासिल कर पाएंगे जो हमारी मूल मानवता, मूल सोच-विचार, मूल भावनाओं को नष्ट और भ्रष्ट ना करे?

यह सवाल है आपके-मेरे ज्ञान के लिए, भ्रष्ट ज्ञान के लिए जिसका ढिंढोरा हम दुनिया भर में बजाते फिरते हैं। जिस दिन इस सवाल का उत्तर हम पा लेंगे, सही मायनों में उसी दिन हम "ज्ञानी" शब्द का अर्थ समझने में सफल होंगे।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

संस्कार

रमेश बस स्टॉप पे खड़ा बस का इंतज़ार कर रहा था। दिन काफी व्यस्त रहा था ऑफिस में।

स्टॉप से थोड़ा आगे बाईं ओर 2 मोहतरमाएं खड़ी थीं। एक के सलवार-दुपट्टे और एक के जींस-टॉप से समझ आ गया कि ये माँ-बेटी हैं और ज़रूर ही अपनी कार का इंतज़ार कर रही हैं। और दोनों के पहनावे से अमीरी टपक रही थी। रमेश सीधा-साधा मध्यम-वर्गीय इंसान, एक आह तो उठी मन के किसी कोने में, ये धन-दौलत का नज़ारा देख कर।

इतने में कहीं से एक 6-7 बरस की लड़की आई। बिलकुल मैले कपड़े ग्रीस लगे, बाल बिखरे हुए फंसे हुए झाड़ की तरह, नंगे पैर और खरोंचें, धंसी हुई आँखें और भीख मांगते हाथ।

उसका हाथ बढ़ता हुआ लड़की के जींस को लग गया।
इतने में लड़की चीख उठी "हट गन्दी, ममा देखो ना पार्टी के लिए पहने हुए कपडे गंदे कर दिए।"
ममा भी बोली पड़ी "भाग यहाँ से गंदी कहीं की। कपड़े गंदे कर दिए सारे। अब बदलने पड़ेंगे।"
इतना कह कर दोनों कुछ सरक से लिए, उस लड़की से दूर।

1 मिनट भी नहीं हुआ था कि बस स्टॉप पर खड़ी एक और 6-7 बरस की लड़की आई और उस गरीब लड़की को 2 लॉलीपॉप थमा कर पीछे अपनी माँ के पास चली गयी। रमेश ने देखा कि उसकी माँ ने बच्ची का गाल सहला दिया जैसे कह रही हो "शाबास"

आस पास खड़े लोग हैरत में थे (पर अमीर मोहतरमाएं अभी भी अपनी अमीरी में व्यस्त थी और अपने कपड़े  झाड़ रही थी) और रमेश सोच रहा था "माँ-बाप का, बचपन से ही अपने बच्चों में अच्छे संस्कार देना कितना ज़रूरी है, यह बात आज उसे व्यावहारिक तौर पर देखने को मिल गया था।"

वह खुश था अच्छाई का बुराई को खदेड़ते देख। संस्कार का अमीरी को पटकते देख। एक छोटी बच्ची को अच्छा बनते देख।