यह आलेख जनसत्ता में ३ दिसम्बर को छपा था। इ-संस्कार यहाँ पढ़ें।
"सामंजस्य" अर्थात 'तालमेल', एक ऐसा शब्द है जिसकी सही पहचान और सही परख हम-आप करने से चूके जा रहे हैं। यह एक ऐसा शब्द है जो इस श्रृष्टि के पूरे वजूद को अपने अंदर समेटे हुए है। पर इस भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी (ज़िन्दगी? शायद यह शब्द अब बदनामी की राह पर है) में विरले ही हैं जो इस बात पर ध्यान भी दे रहे हों।
बचपन से हर जगह सामंजस्य देखा है। घर पे, स्कूल में, मोहल्ले में.. लगभग हर जगह। और जहाँ नहीं देखा, वहाँ तबाही और अराजकता!
हर सुख का कारण कौन? - सामंजस्य!
हर दुःख का कारण कौन? - सामंजस्य!
एक जगह सामंजस्य बना हुआ है और दूसरी जगह बिगड़ा हुआ।
जिस दिन घर पे माता-पिता का सामंजस्य बिगड़ता है, उस दिन घर, घर नहीं रहता। उनके आपसी सामंजस्य से ही मकान घर बना है। जिस दिन छात्र-शिक्षक का सामंजस्य बना रहता था, उस दिन ज्ञान खूब लुटाया और बटोरा जाता था!
आज से कुछ साल पहले तक जब हम कार्य में धीमे और दिमाग में तेज हुआ करते थे, पृथ्वी का सामंजस्य बना हुआ था। फ़िर? फ़िर क्या हुआ? हमारे कार्य बहुत तेज होने लगे और हमारे दिमाग स्थूल होते चले गए। पृथ्वी का सामंजस्य बिगड़ गया। सुनामी, भूकंप तो पहले भी आते थे पर बिन मौसम बरसात, बेवजह ठण्ड और गायब ऋतू, यह सब तो बिगड़ते सामंजस्य की ही देन है। हमारी लोलुपता और नीच सोच ने पेड़ों पर गाज गिराई और उनकी जगह कंक्रीट के घर..ओह घर नहीं, 'मकान' ठूंस दिए गए।
पर यह तो सामंजस्य बिगड़ने का बहुत बड़ा स्वरुप है। अगर उसका बहुत सरल उदाहरण दूं तो यह कहूँगा कि जिस दिन हम अपने शरीर को मद-सेवन करवाते हैं उस दिन शरीर, दिमाग सब बेढंगा हो जाता है और अचरज की बात यह है कि इस बे-सिर-पैर की क्रिया को लोग "हाई" होना कहते हैं जबकि शरीर तो उसी समय अपने सबसे निचले स्तर पर काम कर रहा होता है।
जब दो प्रेमियों के बीच प्यार बराबर न हो तो कुछ ही दिनों में प्रेम फीका पड़ जाता है पर अगर एक-दूसरे की सोच और भावों का सही मिश्रण हो तभी वह जन्मांतर का प्रेम कहलाता है।
ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इंसान हमेशा ही जीतता रहे। जो इंसान हारता नहीं, वह विजेता कहला ही नहीं सकता। जब हार और जीत का सही सामंजस्य जब है तो विजेता बनते है, सदी के धुरंधर!
एक अटपटी लगने वाली बात कहूँ तो अगर चोर न हों तो पुलिस का क्या काम? संसार में इस बात का भी सामंजस्य है कि अच्छे और बुरे दोनों लोगों का होना बहुत ज़रुरी है नहीं तो अच्छे को बुरे से भिन्न करने का मापदंड कहाँ रह जाएगा?
हर कार्य में सामंजस्य की ज़रूरत है। गरीब-अमीर, मस्ती-शान्ति, काम-परिवार, दिखावा-छुपावा, खेल-आराम, क्रोध-हंसी, लगाव-अलगाव और जीवन के अभिन्न आयामों में भी तालमेल बैठाने की कोशिश जब तक नहीं करेंगे हम सब परेशान, निराश, हताश और हारे हुए रहेंगे।
जिस दिन हम अपनी सोच में सामंजस्य का बीज बो देंगे, उस दिन से हम खुद में और अपने आस पास खुशी की बाढ़ देखेंगे। और यह बहुत आसान है। बस हर दिन "खुद" को, खुद की "सोच" को कुछ समय दें, एकांत में। इस जीवन की आपा-धापी, चकाचौंध और भेड़-चाल से खुद को अलग करें। पहले अपनी सोच और फ़िर अपने जीवन में सामंजस्य का समावेश करें, तभी हम ज़िन्दगी को जिंदादिली से और भरपूर जी सकेंगे।
"सामंजस्य" अर्थात 'तालमेल', एक ऐसा शब्द है जिसकी सही पहचान और सही परख हम-आप करने से चूके जा रहे हैं। यह एक ऐसा शब्द है जो इस श्रृष्टि के पूरे वजूद को अपने अंदर समेटे हुए है। पर इस भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी (ज़िन्दगी? शायद यह शब्द अब बदनामी की राह पर है) में विरले ही हैं जो इस बात पर ध्यान भी दे रहे हों।
बचपन से हर जगह सामंजस्य देखा है। घर पे, स्कूल में, मोहल्ले में.. लगभग हर जगह। और जहाँ नहीं देखा, वहाँ तबाही और अराजकता!
हर सुख का कारण कौन? - सामंजस्य!
हर दुःख का कारण कौन? - सामंजस्य!
एक जगह सामंजस्य बना हुआ है और दूसरी जगह बिगड़ा हुआ।
जिस दिन घर पे माता-पिता का सामंजस्य बिगड़ता है, उस दिन घर, घर नहीं रहता। उनके आपसी सामंजस्य से ही मकान घर बना है। जिस दिन छात्र-शिक्षक का सामंजस्य बना रहता था, उस दिन ज्ञान खूब लुटाया और बटोरा जाता था!
आज से कुछ साल पहले तक जब हम कार्य में धीमे और दिमाग में तेज हुआ करते थे, पृथ्वी का सामंजस्य बना हुआ था। फ़िर? फ़िर क्या हुआ? हमारे कार्य बहुत तेज होने लगे और हमारे दिमाग स्थूल होते चले गए। पृथ्वी का सामंजस्य बिगड़ गया। सुनामी, भूकंप तो पहले भी आते थे पर बिन मौसम बरसात, बेवजह ठण्ड और गायब ऋतू, यह सब तो बिगड़ते सामंजस्य की ही देन है। हमारी लोलुपता और नीच सोच ने पेड़ों पर गाज गिराई और उनकी जगह कंक्रीट के घर..ओह घर नहीं, 'मकान' ठूंस दिए गए।
पर यह तो सामंजस्य बिगड़ने का बहुत बड़ा स्वरुप है। अगर उसका बहुत सरल उदाहरण दूं तो यह कहूँगा कि जिस दिन हम अपने शरीर को मद-सेवन करवाते हैं उस दिन शरीर, दिमाग सब बेढंगा हो जाता है और अचरज की बात यह है कि इस बे-सिर-पैर की क्रिया को लोग "हाई" होना कहते हैं जबकि शरीर तो उसी समय अपने सबसे निचले स्तर पर काम कर रहा होता है।
जब दो प्रेमियों के बीच प्यार बराबर न हो तो कुछ ही दिनों में प्रेम फीका पड़ जाता है पर अगर एक-दूसरे की सोच और भावों का सही मिश्रण हो तभी वह जन्मांतर का प्रेम कहलाता है।
ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इंसान हमेशा ही जीतता रहे। जो इंसान हारता नहीं, वह विजेता कहला ही नहीं सकता। जब हार और जीत का सही सामंजस्य जब है तो विजेता बनते है, सदी के धुरंधर!
एक अटपटी लगने वाली बात कहूँ तो अगर चोर न हों तो पुलिस का क्या काम? संसार में इस बात का भी सामंजस्य है कि अच्छे और बुरे दोनों लोगों का होना बहुत ज़रुरी है नहीं तो अच्छे को बुरे से भिन्न करने का मापदंड कहाँ रह जाएगा?
हर कार्य में सामंजस्य की ज़रूरत है। गरीब-अमीर, मस्ती-शान्ति, काम-परिवार, दिखावा-छुपावा, खेल-आराम, क्रोध-हंसी, लगाव-अलगाव और जीवन के अभिन्न आयामों में भी तालमेल बैठाने की कोशिश जब तक नहीं करेंगे हम सब परेशान, निराश, हताश और हारे हुए रहेंगे।
जिस दिन हम अपनी सोच में सामंजस्य का बीज बो देंगे, उस दिन से हम खुद में और अपने आस पास खुशी की बाढ़ देखेंगे। और यह बहुत आसान है। बस हर दिन "खुद" को, खुद की "सोच" को कुछ समय दें, एकांत में। इस जीवन की आपा-धापी, चकाचौंध और भेड़-चाल से खुद को अलग करें। पहले अपनी सोच और फ़िर अपने जीवन में सामंजस्य का समावेश करें, तभी हम ज़िन्दगी को जिंदादिली से और भरपूर जी सकेंगे।
पर इसके दोनों छोर अपना अस्तित्व बनाये रहें तभी यह लम्बा चल पाता है..
जवाब देंहटाएंबस हर दिन "खुद" को, खुद की "सोच" को कुछ समय दें, एकांत में।
जवाब देंहटाएंRECENT POST : ऐ माता तेरे बेटे हम