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सोमवार, 9 जून 2014

गुल्लक: खुशियों का छोटा बक्सा

गुल्लक, एक ऐसा शब्द जो हमें अपने बचपन से जोड़ देता है। आज भी राह चलते किसी सड़क किनारे अगर मिट्टी के बिकते समानों में कहीं वो गोलगप्पम और ऊपर में टोपी की खूँटी लगा वो वस्तु दिख जाए तो अनायास ही मन में गुदगुदी दौड़ जाएगी और होंठों पे मुस्कान।
गुल्लक:खुशियों का छोटा बक्सा (साभार: गूगल)
उम्र का तकाज़ा ही समझिये कि गुल्लक जैसी सरल चीज़ हमारे जीवन से बाहर जा चुकी है। क्या आपको याद है अपने बचपन की वो यादें जब घर आए मेहमान आपको रूपए देते थे तो कैसे आप सहज ही अपने माँ-पिताजी की ओर देखने लगते थे और उनकी स्वीकृति का इंतज़ार करते थे? और उसके बाद अगर आपके हाफ-पैंट की जेब गरम हो भी जाती तो मेहमानों के तुरंत निकलते ही आदेश आ जाता था कि फ़ौरन उन रुपयों को गुल्लक में डाल दिया जाए और आप मन मसोस कर रह जाते कि जिन रुपयों से आप 1 रूपए वाली पानी की पेप्सी और फेरी वाले की सोहन पापड़ी खा सकते थे या कंचों की बाज़ी में २ रूपए लगा सकते थे, वो अब उस गोलम गुल्लक के हवाले होने को है। वो गुल्लक जो आप सहेज कर अपनी अलमारी में रखते थे।

गुल्लक का महत्त्व भी साल में एक दिन बहुत बढ़ जाता था क्योंकि वो नियत दिन जैसे प्रकृति ने हम सबके लिए नियत कर रखा हो। माँ कहती थी कि गुल्लक तो तुम्हारे जन्मदिन वाले दिन ही फोड़ा जाएगा और उसमें से जितने भी रूपए इकट्ठे होंगे उससे तुम्हारे लिए नई पोशाकें या फिर नई साइकिल लाई जाएगी। बस हम इसी बहकावे में अपने गुल्लक को समय समय पर भरते रहते थे और कभी-कभी अपने कानों के पास ला कर बजा कर यह एहसास भी कर लेते थे कि कितना भर गया है हमारा बचत खाता :)

और अगर दो-तीन भाई बहनों की होड़ लगी होती थी तो फिर वो नियत दिन बदल कर दिवाली हो जाती थी जिसमें फिर एक-एक करके सभी के गुल्लक फोड़े जाते और रूपए गिने जाते। जिसकी बचत सबसे ज्यादा वो बन जाता था घर का शहंशाह और फिर उसके हो जाते थे पौ बारह जैसे कोई जंग जीत लिया हो। खुशियाँ सस्ती थी जो कि गुल्लक में भी समा सकती थी।

पता नहीं अब यह बच्चों का सालाना खाता कितना प्रचलन में है पर मुझे विश्वास है कि भारतीयता हमेशा से बचाने में ही विश्वास करता रहा है फिर चाहे वो रूपए हो, खाना हो, कपड़े हो या अन्य कोई चीज़। गुल्लक हमारे समक्ष उसी भारतीयता की मिसाल को दर्शाता है जिसमें बचपन से ही हमें बचाने के गुर सिखाए जाते थे और फिर उसके साथ जुड़ी ख़ुशी को भी महसूस करवाया जाता था।

पिछले कई महीनों से भतीजे के लिए एक गुल्लक घर में आ रहा है तो बचपन फिर से जी रहे हैं। वही उत्साह के साथ वो उसमें रूपए डालता है और फिर एक दिन उस गुल्लक के चारों ओर बैठकर हम उस गुल्लक की कपाल क्रिया करते हैं और उतनी ही उत्कंठा के साथ रूपए गिनकर खुश होते हैं अपनी बचत की कमाई से। बचपन बच्चों से लौटकर वापस आ गया है।

आता हूँ लौटकर, एक गुल्लक फूटने वाला है घर पे। फिर बचत की भोज करेंगे। तब तक आप टिपियाईये और अपने घर भी ख़ुशी का छोटा बक्सा लाइए :)

9 टिप्‍पणियां:

  1. सच छोटी-छोटी बातों में ही बड़ी-बड़ी खुशियां छिपीं हैं...

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  2. कल 11/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  3. गुल्लक की यादे ताज़ा कर दी आपने।

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  4. आपके पोस्ट ने बचपन में लौटा दिया। गुल्लक बच्चे अब भी रखते हैं पर वह फोड़ने वाली गुल्लक लगभग लुप्तप्राय हो चली है। सिक्कों की जगह अब नोटों ने ले ली है तो अब बच्चों के सपनो की उड़ाने भी ऊंची होगयी हैं :)

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