"थूकना",
यह एक ऐसा शब्द है, एक ऐसी प्रक्रिया है
जिससे हर भारतीय बहुत ही परिचित और बहुत ही अनजान है। परिचित इसलिए
क्योंकि वो इस क्रिया को दिन में कई बार करता है और अनजान क्योंकि वह यह
प्रक्रिया अनायास ही करता रहता है। जिस कुशलता से हम सांस लेते हैं, उसी दक्षता से हम
थूकते भी हैं। यह तो हम भारतीयों की कला ही मानिए कि ऐसे कार्य को भी
बेझिझक कर जाते हैं और उससे भी ज्यादा अचंभित करने वाली बात यह है कि जो
दर्शक-दीर्घा वाले लोग हैं, उन्हें भी इस बात का ज्ञान नहीं होता कि सामने वाला आदमी यह कर गया। हम इस थूकन प्रक्रिया के इतने आदि हो चुके हैं कि अब
यह हमारी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन चुका है।
बचपन से ही हम अपने आस पास लोगों को यह अनोखी कला के धनी बने पाते हैं। कोई दीवार पे थूक रहा है, कोई सड़क के किनारे, कोई सड़क के बीच तो कोई चलती बस में से राहगीर पर।
जनाब भारत में तो ऐसे कई गली कूचे हैं कि अगर कोई इंसान किसी अनजान गली से गुजार रहा है तो उसके ऊपर टपाक से "गीली तीर" लगती है और इससे पहले कि वो समझ सके कि यह किस घर से आया, वो उन तंग गलियों की चहचाहट और घरों की बनावट से ही डर के तेज़ी से निकल जाता है। पर वहाँ के रहने वाले बाशिंदों को यह कला की पूरी पहचान है और वो बड़ी चतुराई से इन तीरों से बच निकलते हैं, हर बार!
तो हम बचपन से ही इस कला को आम मानते हैं और कई बार तो दोस्तों के बीच यह शर्त और लग जाती है कि कौन कितनी दूर थूक सकता है। और जब हम ज्यादा दूर नहीं पहुँच पाते हैं तो निराश हो जाते हैं कि यह अद्भुत कला हम न सीख पाए। पर अगर बड़े हो कर विदेशों में यह कला प्रदर्शन करते हैं तो जुर्माना देते हुए पाए जाते हैं (और सोचते हैं कि यहाँ तो इस कला की कोई कद्र ही नहीं!)
मेरा तो यह मानना है कि थूकन कला की प्रतियोगिताएं आयोजित होनी चाहिए क्योंकि हमारे देश में एक से एक धुरंधर इस कला में महारत हासिल कर के बैठे हैं। अपने दूकान के गल्ले पर बैठे-बैठे यों थूकते हैं कि सीधा दूसरी तरफ बह रहे नाले में छपाक! राह चलते लोग हैरत और इज्ज़त से सलाम ठोक कर जाते हैं। जनाब, अगर इस कला को भुनाना है तो इसकी प्रतियोगिताएँ स्कूल, कॉलेज, जिला, शहर, राज्य और राष्ट्रीय स्तर तक करवाए जाएँ और फ़िर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करने के लिए पाकिस्तान, बंगलादेश, इत्यादि जैसे देश तो हैं ही जहाँ यह कला लोग इसी देश से सीख कर गए हैं। मैं तो कहता हूँ कि धीरे-धीरे सही मार्केटिंग द्वारा इसको और देशों में फैलाया जाये और फ़िर देखिये भारत का बोल बाला। अकेले इस खेल में ही इतने पदक जीत जाएँगे कि चीनी और अमरीकी दाँतों तले थूक निगल लेंगे!
"ज्यादा दूर तक थूकना", "थूक कर निशाना लगाना", "सीमित समय में सबसे ज्यादा और सबसे दूर थूक पाना" जैसे विविधता के साथ इसकी शुरुआत की जा सकती है। बाकी तो आजकल सब मार्केटिंग का खेल है। सही से किया जाये तो कचरा भी सोने के भाव बिक ही रहा है।
मेरे खयाल में थूकना भारतीयों के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है तभी तो इतने मुहावरे भी थूकने पर भारत में बहुत प्रचिलित हुए हैं जैसे:
बचपन से ही हम अपने आस पास लोगों को यह अनोखी कला के धनी बने पाते हैं। कोई दीवार पे थूक रहा है, कोई सड़क के किनारे, कोई सड़क के बीच तो कोई चलती बस में से राहगीर पर।
चित्र: गूगल बाबा की देन है
जनाब भारत में तो ऐसे कई गली कूचे हैं कि अगर कोई इंसान किसी अनजान गली से गुजार रहा है तो उसके ऊपर टपाक से "गीली तीर" लगती है और इससे पहले कि वो समझ सके कि यह किस घर से आया, वो उन तंग गलियों की चहचाहट और घरों की बनावट से ही डर के तेज़ी से निकल जाता है। पर वहाँ के रहने वाले बाशिंदों को यह कला की पूरी पहचान है और वो बड़ी चतुराई से इन तीरों से बच निकलते हैं, हर बार!
तो हम बचपन से ही इस कला को आम मानते हैं और कई बार तो दोस्तों के बीच यह शर्त और लग जाती है कि कौन कितनी दूर थूक सकता है। और जब हम ज्यादा दूर नहीं पहुँच पाते हैं तो निराश हो जाते हैं कि यह अद्भुत कला हम न सीख पाए। पर अगर बड़े हो कर विदेशों में यह कला प्रदर्शन करते हैं तो जुर्माना देते हुए पाए जाते हैं (और सोचते हैं कि यहाँ तो इस कला की कोई कद्र ही नहीं!)
मेरा तो यह मानना है कि थूकन कला की प्रतियोगिताएं आयोजित होनी चाहिए क्योंकि हमारे देश में एक से एक धुरंधर इस कला में महारत हासिल कर के बैठे हैं। अपने दूकान के गल्ले पर बैठे-बैठे यों थूकते हैं कि सीधा दूसरी तरफ बह रहे नाले में छपाक! राह चलते लोग हैरत और इज्ज़त से सलाम ठोक कर जाते हैं। जनाब, अगर इस कला को भुनाना है तो इसकी प्रतियोगिताएँ स्कूल, कॉलेज, जिला, शहर, राज्य और राष्ट्रीय स्तर तक करवाए जाएँ और फ़िर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करने के लिए पाकिस्तान, बंगलादेश, इत्यादि जैसे देश तो हैं ही जहाँ यह कला लोग इसी देश से सीख कर गए हैं। मैं तो कहता हूँ कि धीरे-धीरे सही मार्केटिंग द्वारा इसको और देशों में फैलाया जाये और फ़िर देखिये भारत का बोल बाला। अकेले इस खेल में ही इतने पदक जीत जाएँगे कि चीनी और अमरीकी दाँतों तले थूक निगल लेंगे!
"ज्यादा दूर तक थूकना", "थूक कर निशाना लगाना", "सीमित समय में सबसे ज्यादा और सबसे दूर थूक पाना" जैसे विविधता के साथ इसकी शुरुआत की जा सकती है। बाकी तो आजकल सब मार्केटिंग का खेल है। सही से किया जाये तो कचरा भी सोने के भाव बिक ही रहा है।
मेरे खयाल में थूकना भारतीयों के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है तभी तो इतने मुहावरे भी थूकने पर भारत में बहुत प्रचिलित हुए हैं जैसे:
1.) थूक कर चाटना (कितने ही
भारतीय नेता इस मुहावरे को चरितार्थ करते हैं। पहले अपने बेहूदे बयान थूकते
हैं और फ़िर बड़ी बेशर्मी और सफाई से चाट भी जाते हैं)
2.) मुँह पर थूकना (अब इस
श्रेणी में तो हर रोज कई लोग आते हैं। बेईज्ज़ती करने में तो कईयों को इतना
मज़ा आता है कि फ़िर वो यही कहते पाए जाते हैं कि
"फलां के मुँह पर थूक आया", "फलां
के मुँह पर ऐसा थूका कि रोने लगा",
इत्यादि। और फ़िर कई लोग तो ऐसे हैं जो
इस मुहावरे को कुछ ज्यादा ही गंभीर
मान लेते हैं और वाकई में थूक आते हैं
किसी के मुँह पर!)
3.) थू-थू होना (यह श्रेणी भी
कई नेताओं के लिए बहुत सटीक बैठती है। जहाँ जाते हैं, थू थू करवा आते हैं।
और आजकल तो सोशल मीडिया पर भी यह करना बहुत आसान हो गया है। एक बयान दो
और हज़ारों की थू-थू मुफ्त पाओ!)
ऐसे ही और कई मुहावरे हैं जिनका
विश्लेषण हम भारतीयों पर सौ दम फिट बैठता है।
और फ़िर जहाँ लोग गुटखा तम्बाकू में लिप्त हैं वहाँ थूकना न हो तो कहाँ हो? थूक थूक कर रंगीन दीवार बनाने की कला तो कोई हमसे ही सीखे। और यह तो खासकर सरकारी दफ्तरों की सीढ़ियों में बेहद आसानी से पाए जाने वाली कलाकृतियों में से है।
और फ़िर जहाँ लोग गुटखा तम्बाकू में लिप्त हैं वहाँ थूकना न हो तो कहाँ हो? थूक थूक कर रंगीन दीवार बनाने की कला तो कोई हमसे ही सीखे। और यह तो खासकर सरकारी दफ्तरों की सीढ़ियों में बेहद आसानी से पाए जाने वाली कलाकृतियों में से है।
चित्र: गूगल बाबा की देन है
और आजकल जिस तरह के "मॉडर्न
आर्ट्स" चल/बिक रहे हैं, अगर कुछ थुक्कड़ को एक चार्ट पर थूक कर अपनी कला उजागर करने
को कहा जाए तो करोड़ों में वो पेंटिंग "मॉडर्न आर्ट्" के नाम पर विदेशों
में बिकेगी। मैं तो कहता हूँ कि कई निठल्ले रातों-रात अमीर हो जाएँगे और देश का
नाम रौशन करेंगे!
अंत में तो यही कहना चाहूँगा कि भगवान का दिया इस देश में सब कुछ है। बस ज़रूरत है एक पारखी की, उसको पहचानने की। फ़िर देखिये कि यह "थूकन कला" भारत को कहाँ का कहाँ ले जाती है!
इसी आशा के साथ कि अब हम सब मिलकर इस "वाट एन आईडिया सर जी!" पर चिंतन और कार्य शुरू करेंगे, तब तक "ताकते रहिये, रुकते रहिये, थूकते रहिये, चूकते रहिये और जो ना चुके, तो लुकते रहिये!"
अंत में तो यही कहना चाहूँगा कि भगवान का दिया इस देश में सब कुछ है। बस ज़रूरत है एक पारखी की, उसको पहचानने की। फ़िर देखिये कि यह "थूकन कला" भारत को कहाँ का कहाँ ले जाती है!
इसी आशा के साथ कि अब हम सब मिलकर इस "वाट एन आईडिया सर जी!" पर चिंतन और कार्य शुरू करेंगे, तब तक "ताकते रहिये, रुकते रहिये, थूकते रहिये, चूकते रहिये और जो ना चुके, तो लुकते रहिये!"
बहुत ढंग से धोया है आपने थूकन कर गन्दगी फैलाने वालों को।
जवाब देंहटाएंजानते हुए भी लोग बार बार ये गलती करते है,
जवाब देंहटाएंRECENT POST : बिखरे स्वर.