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शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

संस्कृति ? या सिर्फ़ मजाक ?

अभी अभी ऑडी हो कर आ रहा हूँ...
बस यूँ ही चल पड़ा था... देखने कि कैसी तैयारियां चल रही हैं ... कल संस्थापक दिवस पर होने वाले वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम की...
अब साहब यूँ समझ लीजिये की कुछ छुपे हुए कलाकार [कलाकार ?? जाने भी दो ...] अपने आपको किसी तरह उस बिल से निकालने की जहोज्जत में जुटे हुए हैं...या फ़िर बाकी लोगों की मेहनत से.. जो भी कह लीजिये..सब बराबर है...

पता नहीं मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है ओर साथ ही साथ दुःख भी हो रहा है...

गुस्सा इसलिए कि जिस दिन इतने सारे प्रादेशिक संगठन अपनी अपनी संस्कृति की झलक दिखाने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं वहां वो पता नहीं किस संस्कृति को दिखाना चाहते हैं...
शायद अब यह सब उनके लिए टाइम पास हो गया है...संस्कृति शब्द सिर्फ़ ओर सिर्फ़ एक मजाक बन कर रह गया है...
अगर आप अपने प्रदेश की झलक लोगों तक पहुँचाना चाहते हैं तो आपके पास दो ही विकल्प हैं ...
एक...या तो आप उसे करने में अपनी जान झोंक दें या ....
दो... उससे छेड़-छाड़ बिल्कुल ना करें |

पर जहाँ तक अभी के आखिरी रियाज़ की बात है, मुझे काफ़ी कम ही लोगों में इसके प्रति गंभीरता नज़र आई...
लोगों को यह बस एक मस्ती का जरिया ही ज़्यादा लग रहा था...
लोग बस स्टेज पर चढ़ने के इच्छुक हैं लेकिन शायद उन्हें यह नहीं पता की इस स्टेज पर चढ़ने के लिए जो सही में मेहनत करते हैं उन्हें इसकी गरिमा के बारे में पता है..वो इसकी इज्ज़त करना जानते हैं... उन्हें पता है की जब आप इस मंच पर होते हैं तो वो समय हँसी मज़ाक का नहीं होता है... पर आपकी सच्ची मेहनत को सही ढंग से प्रस्तुत करने का है... यह मैं इसलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि मैंने इस मंच पर चढ़ने के लिए वाकई मेहनत की है ओर लोगों को तत्परता से मेहनत करते हुए देखा भी है...
बड़े शर्म की बात है कि कुछ आलसी लोगों के कारण कुछ वाकई में मेहनत करने वालों को भी दो गालियाँ खानी पड़ती हैं... कहते हैं ना - "गेहूं के साथ घुन भी पिसता है"...

ओर जब मैं कुछ ऐसे लोगों का इन सब चीज़ों के प्रति विपरीत रुझान देखता हूँ तो गुस्सा इतना आता है मानो यह चाह रहा हूँ की अभी इनको इस उच्च मंच से विहीन कर दूँ... उनको उस आलस का एहसास तभी होता है जब लोग उनके ख़िलाफ़ नारेबाजी करते हैं.. साहब जब आप मेहनत करना ही नहीं चाहते हैं तो तालियाँ कहाँ से बटोरेंगे ??

जिस तरह से कुछ प्रादेशिक संगठन अपनी संस्कृति को प्रस्तुत कर रहे थे [या कल करने वाले हैं] उसे देख कर बड़ा दुःख हुआ की कल ये अपने से छोटों को ये दिखाएंगे अपनी संस्कृति के बारे में ?? ..... या फ़िर अपने बुजुर्गों को ये तसल्ली देंगे की हमारे हाथों में यह सुरक्षित है ?? ऐसा लग रहा था जैसे कुछ कंजर मंच पर चढ़कर नाटक कर रहे हैं...

दुःख इस बात का भी है कि इस बार भी [पिछले साल भी किसी कारणवश यह सम्भव नहीं हो पाया था] मैं यहाँ पर अपनी प्रस्तुति नहीं दे पाऊंगा... पर ठीक है.. हर जगह फूल तो नहीं मिलेंगे ना ? कहीं कांटें ही सही....
वैसे आप मेरा यह गाना यहाँ से डाउनलोड करके सुन सकते है... आशा करता हूँ आपको अच्छा लगेगा...

कल मैं देख कर आता हूँ .. लोग कितनी गंभीरता से अपनी संस्कृति का बिगुल बजाते हैं...
अगर सम्भव हुआ तो ज़रूर बताऊंगा... मैंने तालियाँ बजाई या गालियाँ..
तब तक के लिए नमस्कार....
जय बिट्स !!!

रविवार, 25 जनवरी 2009

जय हो माल - जय हो !!!

आइये जनाब आज आप लोगों को बिट्स के महलों की बात बताएं :
जिस तरह राजाओं का राजा होता है महाराजा उसी तरह बिट्स में भवनों का राजा है :
पंडित मदन मोहन मालवीय भवन [ओह्ह आपको नहीं पता ये कौन सा भवन है ?? ये है माल भवन] |
यहाँ पर हम प्यार से (सही में प्यार से ??) इसे माल भवन बुलाते हैं |
फिलहाल यहाँ पर तृतीय वर्ष के छात्रों का वास (साहब वास नहीं वनवास कहिये) है |

कुछ रोचक जानकारियां जो की शायद इस राजा का पूरी तरह से वर्णन कर देगा :

1.) यह बिट्स में ऐसी जगह पर स्थित है जिसके करीबन ३०० मीटर अर्धव्यास [रेडीअस] तक कोई भी काम की चीज़ नहीं है (अब SAC का कितना काम है ?? केवल खाना खाने थोड़े ही ना आए है यहाँ) -
GYM-G = दूर (शरीर में सब अंजर-पंजर जंग-ग्रस्त हो गए हैं..धन्यवाद माल )
C'not = दूर (अच्छा है..खर्चा कम हो गया..मोबाइल और पेट दोनों का रिचार्ज अब कम से कम)
Akshay = दूर (यहाँ का सुपर-मार्केट...महीने भर की लिस्ट एक ही बार में लानी पड़ती है [तो आप समझ लीजिये की क्या होगा अगर संडास वाला साबुन बीच महीने में ख़त्म हो जाए तो!!! ] )
Insti = दूर (अच्छा ही है...अगर ५ मिनट पहले उठे तो क्लास वैसे ही लाईट हो जाता है और हम जाते भी कितना हैं ?? )
रेडी = है ही नहीं (बिट्स की लाइफ-लाइन ही नहीं है ...एक चीज़ जिसका यहाँ ना होना सबसे ज़्यादा खलता है )

2.) हम जैसे कुछ बदकिस्मत लोग पुराने माल में कैदी की ज़िन्दगी काट रहे हैं | बताता हूँ क्यों :
- यह भवन शायद आदम ज़माने का है...कब ढह जाए पता नहीं...बाहर से कोई किला लगता है जो जर्र-जर्र हो गया है | अन्दर से वैसा ही खोकला और कबूतरों का घोंसला |
- पहले यह लड़कियों का भवन हुआ करता था - इसलिए इंस्टी ने इसके चारों ओर ऊँची दीवार लगा दी थी | और जब इसके बाद भी उनके दहकते हुए दिल को लगा की कबूतर-बाजी केवल इससे नहीं रुकेगी तो जेल वाले जंगले और लगा दिए | अब यह कर नहीं हटाते हैं कि भविष्य में शायद फ़िर से यह लड़कियों का हॉस्टल हो जाए (मैं कहता हूँ - "पहले लडकियां तो लाओ !!!")

3.) मेरी विंग - इसका नाम है मैवरिक्स (दो "K" के साथ) |
- यहाँ पर आधे सेमेस्टर ट्यूबलाइट चलती है और आधे सेमेस्टर बल्ब |
- यहाँ की ट्यूबलाइट की स्विच नीचे वाले विंग में है (ताकि बिजली बिल कम आए)|
- यहाँ आजकल जन्मदिन पर कुत्ते नहीं आते हैं (बचा कुचा खाने) - मैं कहता हूँ पहले हमारे दोस्त तो ढूँढ लें इस विंग को बाकी कुत्ते-बिल्ली बाद में आ ही जाएँगे !!!
- यहाँ पर हॉस्टल के मुखिया भी आना पसंद नहीं करते हैं - क्योंकि उन्हें लगता है की वो वापसी का रास्ता भूल जाएँगे |
- यहाँ के संडास में गरम-पानी की कोई सुविधा नहीं है | अरे यहाँ क्या आस-पास के कई संडासों में ( अभी कुछ दिनों पहले कई लोग तौलिया और बाल्टी के साथ भवन के चक्कर काटते नज़र आए थे ) भी नहीं है |
- यहाँ पर धूप, पानी, हवा, मिटटी और आग ("किसी" भी काम के लिए) का आना/लाना सख्त मना है |
- यहाँ पर हर गेट/खिड़की/या दीवार पर हाथ/पैर मारने से पुरानी पपड़ीयां बहुत ही खूबसूरत पैटर्न के साथ नीचे बिछे टाईल्स (टाईल्स ???) को चूमती है | आपको अपने कपडों का ख़ास ध्यान रखना पड़ता है |
- यहाँ हर सेमेस्टर के शुरुआत में संडास के बगल वाले कमरे में पानी की सीलन आ जाती है जो कि चौकी के अनुसार काफ़ी आम बात है |

अब बताते-बताते तो मैं भी थक गया हूँ | इंस्टी वालों ने खूब सोचकर यह भवन हम जैसे 3rd year EEEites को दिया है | बोलते हैं जिस तरह से CDCs में प्रोफ़ेसर तुम्हारी जान लेते हैं तो ये भवन अब और क्या लेगा | पड़े रहो इस निर्वासन (Exile) में |

हर जगह से दूर...हर भवनों से जुदा..राजाओं का महाराजा खड़ा है हम जैसे अभागों को अपनी गर्त में छुपाए हुए जहाँ से केवल Clock Tower की घड़ी (माफ़ कीजियेगा "घड़ा") ही दिखता है....

रविवार, 11 जनवरी 2009

Hungry Kya ??

सोया था मैं टुन्न [अरे साहब खाना खा कर (क्या सोच रहे हैं आप ??)] हो कर,
खोने को किसी की यादों में...
पर कमबख्त कुछ समाचार ने,
लगा दी है आग यादों में...

क्या खोने में सोये थे,
और किस उलझन में खो गए हैं...
कोई तो कुछ उपाय बताओ,
अजीब मुसीबत में फंस गए हैं...

सुबह-सुबह अखबार पढ़ा था,
छ्ठाँ दिन हड़ताल का...
आज भी वही जारी है,
न काम का न काज का...

जैसे पहले बहुत स्वादिष्ट था,
खाना हमारे मेस का...
अब हड़ताल का मिला था बहाना,
सब माया है गैस का...

सोते-सोते इसी उधेड़ भुन में,
करवटें दल रहे थे बार-बार...
की कल क्या होगा राम-भरोसे,
क्या रोटी मिल पाएगी चार ???

क्या कल नसीब होगा
वो बिन आलू का आलू-परांठा ??
या फ़िर से वही मोटी रोटी...
मैदा या आटा ??

सोचते-सोचते परेशान हो,
बेचैनी ने सुला दिया...
ऊपर से कोड़े और पड़ें,
ठण्ड ने तो रुला ही दिया...

सुबह-सुबह [हमारी सुबह - ध्यान दें !!] पड़ोसी ने,
ज़ोर से दरवाज़ा तड़-तड़ाया...
हम उठे हड़बड़ा के और कहा,
मैंने नहीं खाया, मैंने नहीं खाया...

उसने कहा - 'अरे बेवकूफ,तुने सच ही कहा...
गलती उनकी नहीं जिन्होंने हड़ताल करवाया,
गलती तो तेरी ही है,
जो इस नींद के चक्कर में,
नाश्ता क्या, दिन का खाना भी छोड़ आया ...